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________________ गीता दर्शन भाग-4 * रोशनी में हैं; आकाश में फैली हैं; महत्वाकांक्षा का हिस्सा हैं। पक्षी आते हैं, शाखाओं पर विश्राम करते हैं। फूल आते हैं, पक्षी गीत गाते हैं। सुबह सूरज निकलता है, हवाएं झोंके देती हैं। तूफान आते हैं, आंधियां आती हैं। वर्षा होती है, रात में चांदनी बरसती है। सब वृक्ष के ऊपर घटित होता है। वृक्ष इसमें खो जा सकता है, जड़ें भूल जा सकता है। लेकिन जब वृक्ष को जड़ों की बिलकुल भी याद नहीं है, तब भी जड़ें ही उसे धारण किए हुए हैं। जब उसे बिलकुल भी स्मरण नहीं | है, जब वह कभी धन्यवाद का एक शब्द भी जड़ों से कहता, जब कभी लौटकर जड़ों का कोई आभार भी नहीं मानता, तब भी जड़ें उसे धारण किए हुए हैं। तो एक व्यक्ति नास्तिक हो, ईश्वर को इनकार कर दे, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है; ईश्वर ही उसे धारण किए हुए है। और एक व्यक्ति भूल जाए, और ईश्वर की उसे कोई सुध न रहे, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ईश्वर ही उसे धारण किए हुए है। कृष्ण कहते हैं, मैं हूं धाता, मैं वह हूं, जो धारण किए हुए है। कोई जाने, न जाने पहचाने, न पहचाने; स्मृति आती हो, न आती हो, चाहे तो इनकार भी कर दे, तो भी मैं धारण किए हुए हूं। आप इनकार कर सकते हैं, लेकिन ईश्वर से बच नहीं सकते। आप भाग सकते हैं; कितने ही भागें! जैसे कोई मछली सागर में सागर से भागती हो, भागती जाए, मीलों के चक्कर लगाए और फिर भी पाए कि सागर में है। ऐसे ही हर व्यक्ति जो ईश्वर से भागता है, एक दिन पाता है कि वह जिसमें भाग रहा था, वही तो ईश्वर है। कहां भागकर जाने का उपाय है ? इसलिए हमने बहुत मौलिक और आधारभूत व्याख्या पकड़ी है धर्म की और वह है कि जो हमें धारण किए है। और आपको ही नहीं ... । सारी दुनिया में धर्मों ने मनुष्य को केंद्र बना लिया है। इसलिए बहुत धर्म हैं, जो कहेंगे कि जानवरों में तो कोई आत्मा ही नहीं है, इसलिए उनकी हिंसा की जा सकती है; वृक्षों में कोई आत्मा नहीं है, उन्हें काटा जा सकता है; सिर्फ आदमी में आत्मा है। अधिकतर धर्म एन्थ्रोपोसेंट्रिक हैं; आदमी को केंद्र मान लिया है। भारत ऐसा नहीं मानता। भारत यह नहीं कहता कि जो आदमी को धारण किए हुए है, वह ईश्वर है। भारत यह कहता है कि अस्तित्व जिसमें सम्हला हुआ है, जो अस्तित्व को ही धारण किए हुए है, वह ईश्वर है। वही नहीं है ईश्वर, जो आपको धारण किए हुए है; | वह जो वृक्ष को धारण किए हुए है, वह भी ईश्वर है। वह जो नदी में बह रहा है, वह भी ईश्वर है। वह जो सूरज में पिघलकर आग बन रहा है, वह भी ईश्वर है। और वही ईश्वर नहीं है, जो आपको प्रीतिकर है, जो अप्रीतिकर है, वह भी ईश्वर है। अमृत ही ईश्वर नहीं है, जहर भी ईश्वर है । जहर के होने के लिए भी उसका ही आधार चाहिए। उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। इसे हम ऐसा समझें, कि ईश्वर से हमारा अर्थ है, अस्तित्व का | जो सार है। इसलिए ईश्वर हमारे लिए व्यक्ति नहीं है। वह कहीं आकाश में सात आसमानों के ऊपर बैठा हुआ सिंहासन पर कोई | व्यक्ति नहीं है, जो राज-काज चला रहा है। इतनी बचकानी हमारी धारणा नहीं है। यह बच्चों का ईश्वर है। इससे और गहरे ईश्वर को | बच्चे नहीं समझ सकते। लेकिन हमारे लिए ईश्वर का अर्थ है, | जिसमें सभी कुछ धारा हुआ है – सभी कुछ; जन्म भी और मृत्यु भी; और सृजन भी और प्रलय भी । तो इसका साधक के लिए क्या अर्थ होगा ? | साधक के लिए अर्थ होगा कि जब भी आप किसी चीज को देखें, तो उसकी शाखाओं पर कम, उसकी जड़ों पर ज्यादा ध्यान दें। और जब भी किसी चीज को आप देखें, तो जो प्रकट है, उस पर कम;. . और जो अप्रकट है, उस पर ज्यादा ध्यान दें। जो दिखाई पड़ रहा है, उस पर कम; और जिसके कारण दिखाई पड़ रहा है, | उसकी खोज करें। मछली को देखें, तो सागर की याद करें। और वृक्ष को देखें, तो जड़ों का स्मरण आ जाए। सदा ही उसकी खोज | करते रहें, जो नीचे छिपा है सभी को सम्हाले हुए है। तो कृष्ण कहते हैं, मैं धाता हूं। और अगर कोई धर्म की खोज | करता रहे, तो मुझ तक पहुंच जाता है। मैं पिता हूं, माता हूं, पितामह हूं। 1 अजीब है बात। क्योंकि वे कह रहे हैं, मैं पिता भी हूं ! पिता कहते हों, तो फिर माता नहीं कहना चाहिए; कहते हैं, मैं माता भी हूं ! और यहां तक भी ठीक था, फिर बात और भी अतर्क्य हो जाती है; वे कहते हैं, पिता का पिता भी मैं ही हूं; पितामह भी मैं ही हूं! ऐसा कहकर क्या कहना चाहते हैं? ऐसा कहकर वे यह कहना चाहते हैं - इसे हम थोड़ा दो-तीन तरफ से समझने की कोशिश करें। | आप पैदा हुए। तो शायद आपको खयाल होगा, जन्म की एक | तिथि है और फिर मृत्यु की एक तिथि है, इन दोनों के बीच आप समाप्त हो जाएंगे। लेकिन इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है । इस जगत में कोई चीज अलग-थलग नहीं है। जन्म के 260
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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