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________________ * गीता दर्शन भाग-4 से देख। तू सिर्फ एक लहर है। एक क्षण को उठा है और एक क्षण रही है; सब जम जाएं, सख्त हो जाएं भीतर। बाद खो जाएगा। मैं सागर हूं। मैं तुझसे कहता हूं कि तू मेरे से ही। अगर जब सारी लहरें एक-दूसरे को जमाने में लगी हों, तो फिर उठा है, मुझसे ही सम्हाला गया है। मैं ही तेरा अभी भी मालिक हूं, | नीचे के सागर का खयाल आना बहुत मुश्किल हो जाता है। अभी भी मैं ही तेरा साक्षी हूं। जब तू नहीं था, तब भी मैं था; जब | इसलिए जिन लोगों को समाज को छोड़कर भागना पड़ा-बुद्ध को तू नहीं होगा, तब भी मैं रहूंगा। तू मेरी तरफ देख और अपने कर्ता | या महावीर को या जीसस को या मोहम्मद को भी एकांत में भाग के भाव को मेरे ऊपर छोड़ दे। मुझे हो जाने दे कर्ता और तू बन जा | जाना पड़ा—उसका कारण अगर मौलिक आप समझना चाहें, तो केवल उपकरण, तू बन जा केवल एक बांस की पोंगरी। गीत मुझे | सिर्फ इतना ही है कि आप सब इतने जमे हुए बर्फ की चट्टानें हैं कि गाने दे, तू बीच में मत आ। तू बीच में आएगा, वही तेरा दुख, वही आपके बीच में पिघलना बहुत मुश्किल है! पूरा टेंपरेचर नहीं है तेरी पीड़ा, वही तेरा संताप है। पिघलने का वहां। सब जीरो डिग्री से नीचे जमे हुए हैं। वहां अगर यह सारी की सारी बात समझाने के पीछे अहंकार को पिघलाने | कोई पिघलना भी चाहे, तो पिघलना मुश्किल है। चारों तरफ जमाने का इशारा है। अहंकार बर्फ की तरह हमारे भीतर जमा हुआ है, वाले लोग मौजूद हैं। फ्रोजन। उसे थोड़ा पिघलाना जरूरी है। इसलिए बुद्ध या महावीर को समाज छोड़कर भागना पड़ता है। कभी आपने खयाल किया, सागर में एक बर्फ की चट्टान तैर | | समाज को छोड़कर भागने का और कोई कारण नहीं है। अकेले में रही हो, तो सागर से बिलकुल अलग मालूम पड़ती है। पीछे मैंने | | जाना पड़ता है, ताकि वहां कम से कम अपनी ही ठंडक से लड़ना कहा, लहर सागर से अलग मालूम पड़ती है। लेकिन लहर का भ्रम | पड़े; दूसरों की ठंडक से तो न लड़ना पड़े। अकेले, एकांत में, जहां ज्यादा देर नहीं चल सकता, क्योंकि लहर कितनी देर उठी रहेगी? | चारों तरफ कोई ठंडक न हो। क्षणभर बाद गिर जाएगी और खो जाएगी। लेकिन लहर अगर मैंने सुना है, फकीर बोकोजू जंगल में था। उसके ज्ञान की खबर फ्रोजन हो जाए, जम जाए, बर्फ बन जाए, फिर लहर का भ्रम बहुत | राजधानी तक पहुंच गई। सम्राट उससे मिलने आया। सम्राट आया देर चल सकता है। क्योंकि जब तक बर्फ न पिघले! और अगर था मिलने, तो सम्राट था, कुछ भेंट लानी चाहिए। तो एक बहुत चारों तरफ दूसरी लहरें भी जमकर बर्फ हो गई हों, तो यह भ्रम और | बहुमूल्य, लाखों रुपए की कीमत का एक कोट सिलवा लाया। भी बहुत देर चल सकता है। क्योंकि गर्मी भी कहीं से नहीं मिलेगी, उसमें लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात लगा दिए। बड़ा कीमती वस्त्र सब तरफ से अहंकार की ठंडक ही मिलेगी, यह और जम जाएगी। था। शायद पृथ्वी पर वैसा खोजना दूसरा मुश्किल हो। सम्राट उसे ___ हम सब ऐसी ही लहरें हैं, फ्रोजन वेव्स। और चंकि हम चारों बड़ी मेहनत से बनवाकर लाया था। तरफ सभी बर्फ बन गए हैं जमकर; एक-दूसरे को हम ठंडक देते | जब सम्राट फकीर के सामने मौजूद हुआ, तो फकीर एक चट्टान रहते हैं और जमाते रहते हैं। हम सब एक-दूसरे के अहंकार को | पर नग्न, एक वृक्ष से टिका हुआ बैठा है। सम्राट ने चरण छुए, भेंट जमाने की चेष्टा में लगे रहते हैं, हमें पता हो या न पता हो। रखी। फकीर भेंट को देखकर हंसा। फिर फकीर ने ऊपर वृक्ष की बाप बेटे से कहता है कि शाबाश, तू पहला नंबर आ गया है तरफ देखा। फिर आस-पास हिरण घूमते थे, उनकी तरफ देखा। स्कूल में! आएगा क्यों नहीं; आखिर मेरा ही बेटा जो है! ये | फिर आकाश में चीलें उड़ती थीं, उनकी तरफ देखा। एक-दूसरे को जमा रहे हैं। बेटे के अहंकार को जमाने की चेष्टा ___ उस सम्राट ने कहा, आप क्या देख रहे हैं? तो उसने कहा, मैं चल रही है। यह देख रहा हूं कि तुम्हारा यह कोट मझे बड़ी दिक्कत में डालेगा। बेटा आज अगर प्रथम नहीं आया है. तो घर बिलकल उदास है। क्योंकि अगर यह कोट तमने मझे राजधानी में दिया होता. तो मां बेचैन है, बाप पराजित मालूम पड़ रहा है। बेटा भी चिंतित है। राजधानी में सभी आदमी इस कोट की प्रशंसा करते और कहते कि क्या हुआ है? जरा बर्फ पिघलने लगी। वह अहंकार, मैं—हमारे घर मैं बहुत महान हो गया हूं, क्योंकि मुझे यह राजा का कोट मिल गया में कभी कोई नंबर दो आया ही नहीं, और यह बेटा नंबर दो आ गया! है। लेकिन यहां जंगल में बेपढ़े-लिखे जानवर हैं, असभ्य, इन को हम सब एक-दूसरे को जमाने की कोशिश में लगे हैं। हमारी कुछ पता नहीं है। मैंने ऊपर देखा इसलिए कि वे जो तोते बैठे हैं, शिक्षा, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, सब एक-दूसरे को जमा वे हंस रहे हैं। मैंने ऊपर देखा कि वह जो चील उड़ रही है, वह 268|
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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