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________________ * मैं ओंकार हूं * मजाक उड़ाएगी। मैंने हिरण की तरफ देखा, उसकी आंख में शरारत है। आपके जाते ही ये सब कहेंगे, बन गए बुद्ध! कैसे मुक्त थे, कैसे आनंद में थे, नग्न! कैसे स्वतंत्र थे, कैसे परमात्मा की हवाएं सीधा छूती थीं! पहन लिया कोट! और फिर यहां हीरे-जवाहरात का कोई पता रखने वाला भी नहीं है। तो मैं शान भी बघारूंगा, तो किसके सामने? और अकड़कर चलूंगा भी, तो कहां? यहां अगर अकडकर चलंगा, तो यह सारा जंगल मझ पर हंसेगा। तो यहां मैं सम्राट के द्वारा सम्मानित कम और किसी सर्कस का जोकर ज्यादा मालूम पडूंगा। यह कोट तुम ले जाओ, इतनी कृपा करो। जंगल में आपके आस-पास ठंडक देने वाला कोई भी नहीं है, आपके अहंकार को ठंडा करने वाला कोई भी नहीं है, पिघल जाएगा आसानी से। इसलिए भागते रहे लोग। कृष्ण उसी अहंकार को पिघलाने के लिए कह रहे हैं, सब मैं हूं। अगर तुझे यह स्मरण आ जाए अर्जुन, तो तू जो इस खयाल से भर रहा है कि तू ही केंद्र है और तेरे ऊपर ही सब दारोमदार है, यह खयाल तेरा छूट जा सकता है। और यह खयाल न छूटे, तो आदमी की आंखें अंधी ही रह जाती हैं। · अहंकार अंधापन है। और अहंकार के छूट जाते ही प्रज्ञा की आंख खुलती है, और जीवन जैसा है वैसा पहली बार दिखाई पड़ता है। आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। और कीर्तन पूरा हो जाए तभी उठे। 269
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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