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________________ श्रीमद्भगवद्गीता अथ नवमोऽध्यायः गीता दर्शन भाग-4 श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। १ ।। राजविद्याराजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।। २ ।। अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्त्मनि ।। ३ ।। श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, तुझ दोष-दृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगा, कि जिसको जानकर तू दुखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा। यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। और हे परंतप इस तत्व - ज्ञान - रूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त न होकर, मृत्युरूप संसार-चक्र में भ्रमण करते हैं। जी वन देखने की एक दृष्टि नकारात्मक भी है और एक दृष्टि विधायक भी। जीवन को ऐसे भी देखा जा सकता है कि उसमें पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई न पड़े, और ऐसे भी कि परमात्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ शेष न रहे। जो कहते हैं कि जीवन मात्र पदार्थ है, वे केवल इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि नकारात्मक, निगेटिव है। जो कहते हैं कि जीवन पदार्थ नहीं, परमात्मा है, वे भी इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि विधायक, पाजिटिव है। इस सूत्र में उतरने के पहले इन दो दृष्टियों को ठीक से समझ लेना जरूरी है; क्योंकि जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसी हमारी दृष्टि होती है। जो हम देखते हैं, वह हमारी आंख की खबर है। जो हम पाते हैं, वह हमारा ही रखा हुआ है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारा ही भाव है, और हमारे ही भाव का प्रत्यक्षीकरण है। विज्ञान सोचता था कि मनुष्य तटस्थ होकर भी देख सकता है। और विज्ञान की आधारशिला यही थी कि व्यक्ति तटस्थ होकर निरीक्षण करे- कोई भाव न हो उसका, कोई दृष्टि न हो उसकी – तभी, सत्य क्या है, वह जाना जा सकेगा। लेकिन विगत तीन सौ वर्षों की वैज्ञानिक खोज ने विज्ञान की अपनी ही आधारशिला को डगमगा दिया है। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई उपाय ही नहीं है कि व्यक्ति दृष्टि को छोड़कर और तथ्य को | देख सके। एक बहुत कीमती विचारक पोल्यानी ने इस सदी की महत्वपूर्ण किताब लिखी है । उस किताब को नाम दिया है, पर्सनल नालेज । और पोल्यानी का कहना है कि कोई भी ज्ञान व्यक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। जानने में जानने वाला समाविष्ट हो जाता है। जो हम देखते हैं, उसमें हमारी आंख की छाप पड़ जाती है। जो हम छूते हैं, छूने से हमें जो अनुभव होता है, वह वस्तु का ही नहीं, अपने हाथ की क्षमता का भी है। जो मैं सुनता हूं, उस सुनने में मेरे कान पर पड़ी हुई ध्वनियों की चोट ही नहीं, मेरे कान की व्याख्या भी सम्मिलित हो जाती है। व्याख्यारहित देखना असंभव है। कोई उपाय नहीं है। हम कितनी ही चेष्टा करें, जो निरीक्षण कर रहा है, वह बाहर नहीं रह जाता; वह भीतर प्रविष्ट हो जाता है। अगर आप एक वृक्ष के पास से गुजरते हैं और वह वृक्ष आपको सुंदर दिखाई पड़ता है, तो इसमें वृक्ष का सौंदर्य तो है ही; आपकी देखने की क्षमता, आपकी व्याख्या, आपके मनोभाव, आपकी मनःस्थिति, आप भी सम्मिलित हो गए। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि जब आप दुखी हों, तब यह वृक्ष सुंदर दिखाई न पड़े। और ऐसा भी होगा कि जब आप | आनंदित हों, तो यह वृक्ष भी नाचता हुआ दिखाई पड़ने लगे। और जब एक चित्रकार वृक्ष के पास से निकलता है, तो उसे जो रंग दिखाई देते हैं, वे गैर - चित्रकार को कभी भी दिखाई नहीं दे सकते। और जब एक कवि उस वृक्ष के पास से निकलता है, तो उस वृक्ष के फूलों में काव्य लग जाता है - वह, जिसके पास | कवि का हृदय नहीं है, उसे कभी भी अनुभव में नहीं आ सकता है। और उसी वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति दुकानदार की तरह बैठा हो, तो उसे वृक्ष में यह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। तो जब हम वृक्ष को देखते हैं, तो वृक्ष को ही देखते हैं या हम भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैं? या कि कोई ऐसा उपाय भी है कि वृक्ष को हम वैसा देख सकें, जैसा वृक्ष अपने में है – स्वयं को उसके साथ संयुक्त किए बिना ? कुछ लोग सोचते रहे हैं कि यह संभव है। यह संभव नहीं है। 166
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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