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________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * लेकिन ये दोनों ही केवल फीकी प्रतिध्वनियां हैं उस ध्वनि की। नहीं किया, तो त्याग कैसे करें! तो पकड़ने की चेष्टा चलती है। स्मृति से, बुद्धि से समझा गया उच्चार है। वह इन दोनों से भिन्न ध्यान रहे, अगर कोई आदमी विवेकपूर्वक, बुद्धिमानीपूर्वक, और दोनों से मिलती-जलती है। उस ध्वनि को अनाहत कहा है. | होशपूर्वक भोग कर ले, तो त्याग करने में कठिनाई नहीं आनी क्योंकि वह बिना किसी चीज से टकराए पैदा होती है। वह अस्तित्व चाहिए। क्योंकि शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पकड़ने की की ध्वनि है। वह अस्तित्व के होने से ही पैदा हो रही है। आकांक्षा शेष रह जाए। सिर्फ अज्ञान ही पकड़ा सकता है। और इस ध्वनि को उच्चार करता हुआ जो पुरुष मेरे चिंतन में रमा, भोग न कर पाने के कारण त्याग की क्षमता नहीं हो पाती। शरीर को त्यागकर जाता है...। भोग करें। और ठीक से भोग कर लें। और होशपूर्वक भोग कर हम शरीर को त्याग नहीं करते, हमें शरीर त्याग करना पड़ता है। लें। और देख लें कि शरीर क्या दे सकता है। और जान लें कि शरीर बड़ी मजबूरी में, बड़ी विवशता में, बड़ी मुश्किल से छीना-झपटी | | से क्या मिल सकता है। जल्दी ही आप इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे होती है हमसे। आपने कथाएं पढ़ी होंगी, कहानियां कहती हैं, कि शरीर से कुछ भी मिलने वाला नहीं है। अगर कुछ खोजना है, धर्मगुरु समझाते हैं, वे कहते हैं कि जब मौत आती है, तो मौत के | तो किसी और दिशा में खोजना पड़ेगा। फिर शरीर को छोड़ने में यमदूत आते हैं और बड़ी जोर-जबरदस्ती करके आत्मा को छीनकर कठिनाई नहीं होती। ले जाते हैं। और जिसको यह प्रतीति हो जाए कि शरीर से कुछ मिलता नहीं, . उलटी है यह बात। कोई छीनकर आत्मा नहीं ले जाता। आप ही कुछ मिलेगा नहीं, वह तत्क्षण–तत्क्षण शरीर को त्यागने को तैयार शरीर को इतने जोर से पकड़ते हैं कि छीना-झपटी हो जाती है। प्राण हो सकता है। और मृत्यु तब जब आए, तो वह सहज स्वीकार कर जाना चाहते हैं। कोई उस तरफ से नहीं खींचता आपको। किसी को सकता है कि ठीक है, आ जाओ। मैं तो तैयार ही था। इस शरीर खींचने की जरूरत नहीं है। प्राण जाना चाहते हैं। वक्त आ गया। को मैं देख चुका। इसमें कहीं कुछ भी नहीं है, जो पाने योग्य है। समय चुक गया। शरीर व्यर्थ हो गया। और आपका मन छोड़ना | और कहीं भी कुछ भी नहीं है, जिसे खोने का कोई भय हो। मैं शरीर नहीं चाहता। आप पकड़े हैं। नाव छूट चुकी, उसका इंजन दौड़ने को देख और जान चुका हूं। ऐसे व्यक्ति को संयम भी आसान हो लगा; और आप किनारे को पकड़े हुए हैं। जो छीना-झपटी होती जाता है। और ऐसे व्यक्ति को अंतिम क्षण में शरीर का त्याग भी है, वह उस तरफ से नहीं, इसी तरफ से होती है, हमारे द्वारा होती सरल हो जाता है। है। हम शरीर को फिर भी पकड़े रहना चाहते हैं, हम फिर भी शरीर को त्यागकर जाता है ऐसा जो पुरुष, वह परम गति को चीखते-चिल्लाते हैं। और बच जाएं, एक क्षण और मिल जाए। | प्राप्त होता है। एक श्वास और ले लूं। हम त्याग नहीं कर पाते शरीर का। परम गति, यानी जिसके आगे फिर और कोई गति नहीं है। जहां __ अब यह बहुत मजे की बात है। न हम भोग कर पाते, न हम से लौटना नहीं है, जिसके आगे जाना नहीं। त्याग कर पाते। क्योंकि अगर भोग ही कर लिया हो, तो त्याग करने शब्द बड़ा अदभुत है। गति का तो मतलब होता है मूवमेंट। गति में कठिनाई नहीं आनी चाहिए। क्योंकि जिस चीज को हम भोग लेते | का अर्थ होता है मूवमेंट, चलना, बदलना, परिवर्तन। परम गति हैं, उसे छोड़ने की तैयारी हो जाती है। जब पेट भर जाता है, तो का क्या मतलब होगा? वहां तो कोई चलना नहीं होता, कोई आदमी थाली छोड़ देता है। लेकिन जिंदगीभर इस शरीर में रहकर मूवमेंट नहीं; कोई जाना नहीं, कोई आना नहीं। भोग भी नहीं कर पाते कि थाली छोड़ सकें। जब वक्त आए छोड़ने परम गति शब्द कंट्राडिक्टरी है, विरोधी है। असल में परम का, तो हम कह सकें, भर गया पेट। | कहना और गति कहना, दो विरोधी शब्दों का एक साथ प्रयोग न हम भोग कर पाते, न हम त्याग कर पाते। हम बड़े अजीब | | करना है। कहना कि अल्टिमेट मूवमेंट! मवमेंट कभी भी अल्टिमेट लोग हैं। जब भोग का समय होता है, तब हम भोग को पोस्टपोन | नहीं हो सकता। क्योंकि गति का अर्थ ही होता है कि वह अभी करते रहते हैं, कल कर लेंगे! इंतजाम पहले कर लें, फिर भोग कर | | किसी तरफ हो रही है। गति का अर्थ ही होता है कि अभी हो रही लेंगे। फिर इंतजाम में जिंदगी चुक जाती है, फिर मौत सामने आ | | है। तो जिस तरफ हो रही है, वहां होगा अंत। अभी अंत नहीं हो जाती है, त्याग का वक्त आ जाता है। लेकिन अभी हमने भोग ही | | गया। गति स्वयं में कभी अंत नहीं होती। अंत कहीं आगे होगा,
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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