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________________ * गीता दर्शन भाग-4 जिसकी तरफ गति होती है। जितने पास हो जाए, दिखाई नहीं पड़ता। इस हाथ को पास पास परम गति विरोधी शब्द है। लेकिन जीवन में जितने गहरे सत्यों | | पास, आंख के जितने पास ले आओ, उतना ही दिखाई पड़ना का उदघाटन करना हो, उतने विरोधी शब्दों का प्रयोग करना पड़ता मुश्किल हो जाता है। फिर बिलकुल आंख से लगा लो, फिर कुछ है। और इसीलिए संतों की वाणी निरंतर कंट्राडिक्शंस से, विरोधों दिखाई नहीं पड़ता। और वह आंख के भी पीछे है, तो कठिन हो से, असंगतियों से भरी होती है। असल में संत बोल ही नहीं जाता है। सकता, बिना कंट्राडिक्ट किए संत बोल ही नहीं सकता। और अगर | ___ परम गति भी विरोधी शब्द है, कंट्राडिक्शन इन टर्स। गति परम कोई बोलता हो, तो उसे सत्य का कोई पता नहीं होगा। नहीं हो सकती; और जो परम है, वहां कोई गति नहीं हो सकती। सत्य को बोलने का मतलब ही यह है कि आपको विरोधी शब्दों | | लेकिन फिर भी सार्थक है, क्योंकि हम गति को ही पहचानते हैं। का एक साथ प्रयोग करना पड़ेगा। उपनिषद कहते हैं. दर से भी दर हमने बहुत गतियां की हैं। न मालूम कितनी योनियों में भ्रमण किया और निकट से भी निकट है वह। या तो कहो दूर से भी दूर; रुको। | है। न मालूम कहां-कहां गतिमान हुए हैं। हमें तो एक ही पता या कहो, निकट से भी निकट; और ठहरो! कृपा करके दोनों तो है-गति, और गति, और गति। एक साथ मत कहो कि दूर से भी दूर है वह और निकट से भी निकट | कृष्ण कहते हैं, वह परम गति को उपलब्ध हो जाता है। है! कंट्राडिक्शन का तो उपयोग मत करो। और परम गति अर्थात आखिरी गति को, जिसके आगे और लेकिन कोई उपाय नहीं। ऐसा ही है वह। पास भी इतने कि कोई गति नहीं, जहां सब ठहर जाता है। परम गति का अर्थ है, उससे ज्यादा पास कोई नहीं। और फिर भी अनंत-अनंत यात्रा जहां सब ठहर जाता है। जहां कंपन भी नहीं, लहर भी नहीं। जहां करके भी उस तक पहुंच कहां पाते हैं ! दूर से भी बहुत दूर। शायद कोई मूवमेंट नहीं। इसीलिए बहुत दूर है कि बहुत पास है। इतने पास है कि चलने का | - लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वहां मृत्यु है। यह जो ठहराव मौका ही नहीं मिलता कि कैसे चलकर उसके पास पहुंचे। जरा दूर है, यह जो थिरता है, परम जीवन है; लेकिन बिना गति के। और हो, तो आदमी चलकर भी पहुंच जाए। बहुत पास हो, तो चलकर | गति का जो जीवन है, वह तो घिस जाएगा। और गति में जो जीवन | है, वह आज नहीं कल गलेगा, सड़ेगा, टूटेगा, डिटेरिओरे होगा। ला नसरुद्दीन एक जगह काम करता है। दफ्तर उसके घर के लेकिन परम जीवन तो वही हो सकता है, शाश्वत, जहां कोई गति सामने है, लेकिन रोज ही वह देर पहुंचता है। लेट लतीफ। रोज ही। नहीं। क्योंकि गति में चीजें मिट जाती हैं। आखिर एक दिन मालिक के बरदाश्त के बाहर हुआ। उसने कहा, | हम सब गति में ही मिटते हैं। इसलिए सत्तर साल में शरीर घिस नसरुद्दीन, सीमा भी होती है किसी बात की। जो आदमी छः मील | | जाता है। घिस जाता है, इसका मतलब है कि सत्तर साल गति कर दूर रहता है, वह ठीक दस बजे आ जाता है। और तुम दफ्तर के ली सब तरह से। मन को दौड़ाया, इंद्रियों को दौड़ाया, पैरों को सामने हो और तुम कभी भी ठीक वक्त पर नहीं आ पाते! चलाया; सब चले। सत्तर साल में सब घिस जाता है। शरीर छूट नसरुद्दीन ने कहा, उसका कारण है। बिकाज आई एम सो नियर, | जाता है। फिर दूसरा शरीर पकड़ना पड़ता है। क्योंकि इतने निकट हूं। उसके मालिक ने कहा, यह कैसा कारण! __उस परम स्थिति में जहां कोई गति नहीं, शरीर की कोई जरूरत समझ में नहीं आया। तो नसरुद्दीन ने कहा कि इस आदमी को अगर नहीं, क्योंकि वहां कोई गति नहीं। शरीर गति का यंत्र है, वाहन है। देर हो जाए, तो जल्दी चलकर देर की कमी पूरी कर लेता है। मुझे | इसलिए वह स्थिति अशरीरी है। और परम है, क्योंकि उसके पार, देर हो जाए, तो कितनी ही जल्दी चलं, कोई फर्क नहीं! देर हो ही गई। | उसको ट्रांसेंड करने वाला और कुछ भी नहीं है। है! इस आदमी को मौका है, छः मील का फासला है। ही कैन मेक और हे अर्जुन, जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्त हुआ, सदा ही अप। आई कैन नाट मेक अप। घर से निकले कि दफ्तर! मेक अप | स्मरण करता है मुझे, उस निरंतर मेरे में युक्त हुए योगी के लिए मैं करने की थोड़ी जगह ही नहीं है। इसलिए हम रोज लेट हो जाते हैं! | सुलभ हूं। अंतिम बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसे व्यक्ति को मैं अति बहुत करीब हो, तो चूक सकता है, क्योंकि खयाल में ही न सुलभ हूं। आए। आंखें दूर देखती हैं। पास देखने में सभी आंखें अंधी हैं। | | यह भी विरोधाभास है। क्योंकि परमात्मा तो अति दुर्लभ है। कैसे पहुंचे!
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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