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* नीति और धर्म *
वृक्ष के पास जाकर कहें कि तुम दोनों समान हो, हमारा तिजोड़ी का | तो जब कोई एक भक्त बीज बन जाता है और अपने चारों तरफ बीज मानने को राजी नहीं होगा।
परमात्मा के स्मरण की भूमि को निर्मित कर लेता है, तो दोहरी वह कहेगा, कैसे समान? कहां यह वृक्ष, जिस पर हजारों पक्षी | | घटना घटती है, भक्त परमात्मा में प्रकट होता है और परमात्मा गीत गा रहे हैं। कहां यह वृक्ष, जिसके फूलों की सुगंध दूर-दूर तक | | भक्त में प्रकट होता है। वे दोनों प्रकट हो जाते हैं। वे आमने-सामने फैल गई है। कहां यह वृक्ष, जिससे सूरज की किरणें रास रचाती हैं। हो जाते हैं। एनकाउंटर। कहां यह वृक्ष और कहां मैं, बंद पत्थर की तरह! कुछ भी तो मेरे हम सब ने सदा भगवान से साक्षात्कार का मतलब ऐसा ही पास नहीं है। मैं दीन-दरिद्र, मेरे पास कोई आत्मा नहीं है; कोई | सोचा है कि आमने-सामने खड़े हो जाएंगे। वे मोर-मुकुट बांधे हुए फूल, कोई सुवास नहीं है। मुझे इस वृक्ष के साथ एक कहकर क्यों खड़े होंगे, हम हाथ जोड़े, उनके घुटनों में पैर टेके खड़े होंगे! मजाक उड़ाते हो? क्यों व्यंग करते हो?
. ऐसा कहीं नहीं होने वाला है। यह तो कवि का काव्य है; और लेकिन हम जानते हैं, उन दोनों में वृक्ष सम-भाव से व्यापक है। | मधुर है, प्रीतिकर है, लेकिन काव्य है। वस्तुतः जो अभिव्यक्ति पर एक में प्रकट हुआ, क्योंकि खाद मिली, जमीन में पड़ा, पानी | | होगी प्रकट होने की, वह ऐसी नहीं होगी। वह तो ऐसी होगी कि पड़ा, सूरज के लिए मुक्त हुआ, उठा, हिम्मत की, साहस जुटाया, | जब हम अपने भीतर के बीज को तोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, तो जो संकल्प बनाया, आकाश की तरफ फैला, अज्ञात में गया, अनजान | अभिव्यक्ति होगी, वह दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े हैं ऐसी नहीं, की यात्रा पर निकला, तो वृक्ष हो गया है।
बल्कि दो दर्पण आमने-सामने रखे हैं। कृष्ण कहते हैं, जो मुझे प्रेम से भजते हैं!
दो दर्पण अगर आमने-सामने रखे हैं, तो पता है क्या होगा? यह प्रेम से भजना ही बीज को जमीन में डालना है। प्रेम से भजने एक दर्पण दूसरे में दिखाई पड़ेगा, दूसरा दर्पण पहले में दिखाई का अर्थ है कि जो आदमी दिन-रात प्रभु को सब तरफ स्मरण करता | | पड़ेगा। और फिर अनंत दर्पण, एक के भीतर, एक के भीतर, एक है, उसके चारों तरफ प्रभु की भूमि निर्मित हो जाती है—चारों तरफ। | के भीतर दिखाई पड़ते जाएंगे। वह जो इनफिनिटी, वह जो अनंत उठता है तो, बैठता है तो, खाता है तो, प्रभु को स्मरण करता रहता | दर्पण दिखाई पड़ेंगे, और हर दर्पण फिर उसको दिखाएगा, और है। चारों तरफ धीरे-धीरे, उसकी चेतना के बीज के चारों तरफ प्रभु | फिर वह दर्पण इसको दिखाएगा। और यह अनंत होगा। की भूमि इकट्ठी हो जाती है। उसी भूमि में बीज अंकुरित होता है। दो दर्पण एक-दूसरे के सामने हों, तो जो होगा, वही जब हमारी
निश्चितं ही, जमीन में बीज को गाड़ना पड़ता है। तो प्रकट बीज चेतना परमात्मा की चेतना के सामने होती है, तो होता है। अंतहीन है, प्रकट जमीन है। यह जो चेतना का बीज है, अप्रकट है; अप्रकट | हो जाते हैं हम। और वह तो अंतहीन है ही। अनंत हो जाते हैं हम, ही इसकी जमीन होगी। उस जमीन को पैदा करना पड़ता है। चारों वह तो अनंत है ही। अनादि हो जाते हैं हम, वह तो अनादि है ही। तरफ मिट्टी इकट्ठी करनी पड़ती है उस जमीन की। वही प्रभु की | अमृत हो जाते हैं हम, वह तो अमृत है ही। और दोनों एक-दूसरे भक्ति है।
में झांकते हैं। और यह झांकना अनंत है। इस झांकने का फिर कोई और तब वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट होता हूं।
| अंत नहीं होता। यह फिर कभी समाप्त नहीं होता। यह प्रकट होना भी दोहरा है। जब एक वृक्ष आकाश में खुलता तो ध्यान रखें, परमात्मा से मिलन होता है, फिर बिछुड़न नहीं है, तो दोहरी घटना घटती है। यह वृक्ष तो आकाश में प्रकट होता होती। फिर वह मिलन अनंत है। और फिर उस मिलन की रात का ही है, आकाश भी इस वृक्ष में प्रकट होता है। यह वृक्ष तो सूरज के कोई अंत नहीं है। उस सुहागरात का फिर कोई अंत नहीं है। वहां समक्ष प्रकट होता ही है, सूरज भी इस वृक्ष के भीतर से पुनः प्रकट | से फिर कोई वापस नहीं लौटता। वहां से पुनरागमन नहीं है। होता है। यह वृक्ष तो हवाओं में प्रकट होता ही है, हवाएं इस वृक्ष | पर इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा किसी को प्रेम करता है के भीतर श्वास लेती हैं और प्रकट होती हैं। यह वृक्ष तो प्रकट होता और उसे दर्शन दे देता है, और किसी को प्रेम नहीं करता और ही है, इस वृक्ष के साथ जमीन भी प्रकट होती है; इस वृक्ष के साथ | | उसको चकमा देता रहता है कि दर्शन नहीं देंगे! जमीन की सुगंध भी प्रकट होती है। यह वृक्ष ही प्रकट नहीं होता, ___ नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। परमात्मा के प्रेम का सवाल नहीं वृक्ष के साथ सारा जगत भी इसके भीतर से प्रकट होता है। | है, आपके श्रम का सवाल है। उसकी कृपा का सवाल नहीं है,
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