________________
* गीता दर्शन भाग-4
आपके संकल्प का सवाल है।
कि उसका प्रश्न क्या था। उसकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, लेकिन आप अपने मटके को एक मित्र ने पूछा है कि चंद्रमा पर आदमी पहुंच गया, लेकिन उलटा रखकर बैठे हैं। आप चिल्ला रहे हैं कि कृपा नहीं है। पास हिंदू शास्त्रों में लिखा है कि वहां देवताओं का वास है! इसका उत्तर का मटका भरा जा रहा है। वह मटका सीधा रखा है, आप अपने दीजिए। मटके को उलटा रखे बैठे हैं। और अगर कोई आकर कोशिश भी इधर गीता चल रही है, उससे इसका कोई प्रयोजन नहीं है। इस करे आपके मटके को सीधा रखने की, तो आप बहुत नाराज होते | पर अगर मैं चर्चा करने बैठ जाऊं, तो गीता बंद कर देनी पड़े। फिर हैं। आप कहते हैं, यह हमारा ढंग है; यह हमारी मान्यता है; यह | चर्चा का दूसरा रुख, वह मेरी आदत नहीं है। जो मैं बात कर रहा हूं, हमारा दृष्टिकोण है; यह हमारा धर्म है; यह हमारा मत है; यह | उससे इतर बात करना मुझे पसंद नहीं है। इस तरह के प्रश्न का उत्तर हमारे शास्त्र में लिखा है!
नहीं दिया जाता है, तो उनको लगता है कि भारी नुकसान हो गया। - आप हजार दलीलें देते हैं अपने मटके को उलटा रखे रहने के | फिर मुझे यह भी समझ में नहीं पड़ता कि साधक को क्या लिए। और जब भी कोई अगर जोर-जबर्दस्ती आपके मटके के | प्रयोजन कि चांद पर देवता रहते हैं कि नहीं रहते। आपके भीतर साथ सीधा करने की करे, तो कष्ट होता है, पीड़ा होती है, झंझट | कौन रहता है, इसकी फिक्र करनी उचित है। चांद पर न भी रहते होती है; सुखद नहीं मालूम पड़ता। मटका उलटा रखा है सदा से। । हों, तो कुछ हर्जा नहीं है। और रहते भी हों, तो मजे से रहें! आपको हमें लगता है, यही इसके रखे होने का ढंग है। फिर पास का मटका | | कुछ लेना-देना नहीं है। इन सब बातों का साधक के लिए कोई अर्थ भर जाता है, तो हम चिल्लाते हैं, परमात्मा किसी पर ज्यादा कपाल नहीं होता। मालम हो रहा है और हम पर कपाल नहीं है।
मैं उतनी ही बातें आपसे कहना पसंद करता हूं, जो किसी तरह परमात्मा की वर्षा निरंतर हो रही है; जो भी अपने मटके को | | आपकी साधना के लिए उपयोगी हों। व्यर्थ की बातों में प्रयोजन सीधा कर लेता है, वह भर जाता है। और कोई बाधा नहीं है। | मुझे नहीं है। आपका प्रश्न गलत है, यह नहीं कहता। किसी के लिए आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और | सार्थक हो सकता है; वह खोज में लगे। कोई आपका शत्रु नहीं है। आपके अतिरिक्त और किसी ने कभी एक मित्र छपा हुआ पर्चा रोज यहां बांटकर मुझे दे जाते हैं। पोस्ट कोई विघ्न नहीं डाला है।
से भी मुझे घर भेजा है। भारी नाराज हैं। वे जो मित्र रोज शोरगुल अगर आप परमात्मा से नहीं मिल पा रहे हैं. तो इसमें आपका करके खडे हो जाते हैं. उनका पर्चा है। उस पर्चे में है कि राजस्थान ही हाथ है। अगर आप मिल पाएंगे, तो यह आपकी ही आपके | में किसी आदमी ने कोई किताब लिखी है, जिसमें उसने लिख दिया ऊपर कृपा है। परमात्मा की कृपा का इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। है कि दशरथ नपुंसक थे, या लक्ष्मण व्यभिचारी थे। उसका प्रेम सम है। उसका अस्तित्व हमारे भीतर समान है। उसकी मुझे पता नहीं है! मैंने वह किताब पढ़ी नहीं। जिन्होंने पर्चा छापा क्षमता, उसकी बीज-क्षमता हमारे भीतर एक-सी है। लेकिन फिर है, उन्होंने भी नहीं पढ़ी है। किसी अखबार में उन्होंने यह पढ़ा है भी हम स्वतंत्र हैं। और चाहें तो उस बीज को वृक्ष बना लें, और | कि ऐसा किसी आदमी ने लिखा है। वे बार-बार मुझे यहां चिट्ठी चाहें तो उस बीज को बंद रख लें।
लिखकर भेजते हैं कि मैं जवाब दूं। हम सब तिजोड़ियों में बंद बीज हैं। और सब अपनी-अपनी । | मेरी समझ में नहीं आता। मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। और दशरथ तिजोड़ियों पर ताले डाले हुए हैं मजबूत कि कोई खोल न दे! कहीं | नपुंसक थे या नहीं, इस रिसर्च में जाने का भी मुझे कोई अर्थ नहीं बीज बाहर न निकल जाए। इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। समझ में आता। हों, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; न हों, तो कोई
दो-तीन प्रश्न रोज मुझसे लोग पूछ रहे हैं, एक-दो मिनट उनके प्रयोजन मुझे नहीं है। जिसको प्रयोजन हो, वह खोजबीन में लगे। संबंध में आपसे कह दूं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिनका कोई भी लेकिन इधर उस सवाल को उठाने का कोई कारण नहीं है। संबंध नहीं है। उनको उत्तर नहीं दिया जाता, तो वे तकलीफ अनुभव। लेकिन हमारे मन न मालूम कहां-कहां के सवाल उठाते हैं! हम करते हैं। क्योंकि किसी के प्रश्न का उत्तर न मिले, तो उसके सोचते हैं, भारी काम हो रहा है। वह मित्र कल मुझे चिट्ठी लिखकर अहंकार को चोट लग जाती है। उसको इसकी फिक्र ही नहीं होती| दे गए हैं, दो दिन से रोज चिट्ठी लिखकर देते हैं, कि वे यहां आधा
344