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________________ * गीता दर्शन भाग-4 अनैतिक व्यक्ति शांति को उपलब्ध नहीं होता। कैसे होगा? बुरा | भी भाषा की कठिनाई है, इसलिए; अन्यथा सब में वही है, या सब करेगा दूसरों के साथ, दूसरे उसके साथ बुरा करेंगे। नैतिक व्यक्ति वही है। जरा भी, रत्तीभर फर्क नहीं है। कृष्ण में या अर्जुन में, मुझ भी शांति को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि बुराई को दबाता है; बुराई | में या आप में, आप में या आपके पड़ोसी में, आप में या वृक्ष में, भीतर धक्के मारती है कि मुझे मौका दो। भीतर अशांति हो जाती है। आप में या पत्थर में, जरा भी फर्क नहीं है। अनैतिक व्यक्ति को अशांति झेलनी पड़ती है, दूसरों और स्वयं | लेकिन फर्क तो दिखाई पड़ता है! कोई बुद्ध है। कैसे हम मान के बीच में; नैतिक व्यक्ति को झेलनी पड़ती है, अपने ही भीतर। लें कि बुद्ध में वह ज्यादा प्रकट नहीं हुआ है! कैसे हम मान लें कि अनैतिक डरा रहता है कि बाहर कहीं फंस न जाए। नैतिक डरा रहता | बुद्ध में वह ज्यादा नहीं है, और हम में, हम में भी उतना ही है! है कि भीतर जिसको दबाया है, कहीं वह निकल न आए। दोनों ही | कठिनाई है। साफ दिखाई पड़ता है। गणित कहेगा, नाप-जोख हो अशांत होते हैं। | सकती है कि बुद्ध में वह ज्यादा है, कृष्ण में वह ज्यादा है। इसीलिए केवल सदा रहने वाली शांति को वही उपलब्ध होता है, जो | | तो हम कहते हैं, कृष्ण अवतार हैं, बुद्ध अवतार हैं, महावीर तीर्थंकर भीतर धर्मात्मा हो जाता है। धर्मात्मा का अर्थ है, जिसकी आत्मा हैं, जीसस भगवान के पुत्र हैं, मोहम्मद पैगंबर हैं, आदमियों से प्रभ में स्थापित हो जाती है। प्रभ की तरफ दौडते-दौडते बहकर नदी अलग करते हैं उन्हें। उनमें वह ज्यादा दिखाई पड़ता है। सागर में गिर जाती है। जिस दिन सागर और नदी का मिलन होता लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं सम-भाव से व्यापक हूं। फिर भेद है, जहां सागर और नदी का संगम होता है, वहीं धर्मात्मा का जन्म कहां पड़ता होगा? न मेरा कोई अप्रिय है और न मेरा कोई प्रिय। होता है। जिस दिन आत्मा परमात्मा से मिलती है, वह जो प्रेम जब पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय रह जाता है; और न संगम-स्थल है, वहीं धर्मात्मा का जन्म है। फिर कोई अशांति नहीं | कोई प्रिय। क्योंकि जब तक मैं कहता हूं, कोई मुझे प्रिय है, तो है, न बाहर, न भीतर। उसका अर्थ है कि कोई मुझे अप्रिय है। और जब तक मैं कहता हूं, हे अर्जुन, तू निश्चयपूर्वक जान, मेरा भक्तं कभी नष्ट नहीं | | कोई मुझे प्रिय है, उसका यह भी मतलब है कि जो मुझे प्रिय है, वह होता है। कल अप्रिय भी हो सकता है; क्योंकि आज जो अप्रिय है, वह कल नष्ट होने का कोई कारण ही न रहा। नष्ट तो वे ही होते हैं, जो | प्रिय हो सकता है। जब प्रेम पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय होता, ' अशांत हैं। बिखरते तो वे ही हैं, जो भीतर टूटे हुए हैं। जो भीतर एक न कोई प्रिय होता। और न आज प्रिय होता और न कल अप्रिय हो गया, संयुक्त हो गया, उसके नष्ट होने का कोई कारण नहीं है। | होता। ये सारे भेद गिर जाते हैं। परमात्मा पूर्ण प्रेम है, इसलिए कोई और अब हम पहले सूत्र को लें। उसका प्रिय नहीं है और कोई अप्रिय नहीं है। मैं सब भूतों में सम-भाव से व्यापक हूं। न कोई मेरा अप्रिय है परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं उनमें और न कोई प्रिय। परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे प्रकट हूं। में और मैं उनमें प्रकट हो जाता है। यह फर्क है, यहीं भेद है। यहीं बुद्ध कहीं भिन्न, महावीर कुछ सब भूतों में सम-भाव से हूं। और. और हम कछ और मालम पडते हैं। ऐसा नहीं है कुछ, जैसा लोग कहते हैं अक्सर कि फलां व्यक्ति | | जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, मैं उनमें प्रकट हो जाता हूं; जो पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। परमात्मा की कृपा किसी पर भी | मुझे नहीं भजते हैं, उनमें मैं अप्रकट बना रहता हूं। कम-ज्यादा नहीं है। भूलकर इस शब्द का उपयोग दोबारा मत व्यापकता में भेद नहीं है, लेकिन प्रकट होने में भेद है। करना। एक आदमी कहता है कि प्रभु की कृपा है। उसका मतलब __एक बीज है। बीज को माली ने बो दिया, अंकुरित हो गया। एक कहीं ऐसा तो नहीं है कि कभी उसकी अकृपा भी होती है? या एक बीज हम अपनी तिजोड़ी में रखे हुए हैं। दोनों बीजों में जीवन समान आदमी कहता है कि मुझ पर अभी प्रभु की कोई कृपा नहीं है। तो रूप से व्यापक है! और दोनों बीजों में संभावना पूरी है। लेकिन उसका अर्थ हुआ कि उसकी अकृपा होगी! एक बीज बो दिया गया और एक तिजोड़ी में बंद है। जो बो दिया नहीं, उसकी अकृपा होती ही नहीं। इसलिए उसकी कृपा का कोई गया, वह अंकुरित हो जाएगा। जो अंकुरित हो जाएगा, उसमें फूल सवाल नहीं है। वह सम-भाव से सबके भीतर मौजूद है। यह कहना लग जाएंगे। कल हम अपने तिजोड़ी के बीज को निकालें, और उस 3421
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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