________________
* गीता दर्शन भाग-42
अब ऐसे आदमी से अगर आप जाकर पूछे, तो उत्तर तक | हो सकती! निश्चित नहीं है कि वह क्या कहेगा! स्पांटेनियस होगा, रिपिटीटिव अंतिम को लक्ष्य बनाएं, क्योंकि अंततः वही आप हो जाएंगे। नहीं होगा। सहज होगा; पुनरुक्ति नहीं होगी। वह वही कहेगा, जो | उस पर श्रद्धा रखें जो आखिरी है, चाहे वह असंभव ही क्यों न उस क्षण में उसकी पूरी अंतरात्मा से निकलेगा। वह वही करेगा उस | मालूम पड़े। क्योंकि संभव को जो चुनता है, वह क्षुद्र हो जाता है। क्षण में, जो उसके परे प्राणों से जन्म लेगा। वह किसी चीज को | असंभव को चुनें। दोहराएगा नहीं। और अगर हमें दोहराता हुआ भी दिखाई पड़े, तो __ और ईश्वर से ज्यादा असंभव कुछ भी नहीं है। अदृश्य, अरूप, वह हमारी ही भूल होगी।
| निराकार असंभव मालूम पड़ता है। उसे चनें। उसकी तरफ उपासना हमको रोज लगता है कि सुबह सूरज निकलता है, वही सूरज। को बढ़ाते चलें। एक दिन पाएंगे कि वह तो मिल गया; आप खो लेकिन जो सूर्योदय को देखते हैं, वे जानते हैं कि दुबारा एक सूर्योदय गए। एक दिन पाएंगे, आप तो नहीं बचे, वही रह गया। एक दिन फिर नहीं होता; न तो वैसे बादल होते, न वैसे रंग होते; न वैसी सुबह पाएंगे, आप वही हो गए हैं। होती, न वे गीत होते, न वह आकाश होता। हर रोज सुबह नया सूरज | आज इतना ही। उगता है। नए सूरज का मतलब, सब नया होता है।
लेकिन पांच मिनट रुकें। कोई बीच में उठे न। कीर्तन पूरा हो ऐसा व्यक्ति प्रतिपल नया होता है।
जाए, फिर जाएं। तो एक बात ध्यान रखें, पुनरुक्ति को तोड़ें। दूसरी बात ध्यान रखें, जो कुछ भी चाहें, गहरे खोजें; तो हर चाह में परमात्मा की चाह छिपी हुई मिलेगी। अपनी हर चाह में अंततः परमात्मा को खोजने का उपाय करें। तो धीरे-धीरे चाहें गिर जाएंगी और परमात्मा की मौलिक चाह ही शेष रह जाएगी; ऊपरी चाहें गिर जाएंगी और भीतरी चाह प्रकट हो जाएगी।
और तीसरी बात, अंतिम को ही लक्ष्य बनाएं, बीच का कोई पड़ाव मंजिल नहीं हो सकता। परमात्मा से कम को लक्ष्य मत बनाएं। क्योंकि जो लक्ष्य है, अंततः आपकी चेतना का तीर उसी लक्ष्य में बिंध जाएगा, और उसी के साथ एक हो जाएगा। इसलिए छोटे लक्ष्य मत बनाएं।
हम सबकी जिंदगी बहुत छोटी-छोटी रह जाती है, छोटे-छोटे लक्ष्यों के कारण। हम क्षुद्र रह जाते हैं, क्षुद्र लक्ष्यों के कारण। __ अब एक आदमी की जिंदगी का लक्ष्य अगर रुपया ही इकट्ठा करना है, तो इस आदमी के पास जो आत्मा होगी, वह आत्मा बहुत बड़ी नहीं हो सकती। कैसे होगी? इसकी आत्मा इसकी अभीप्सा ही तो है। यह धन इकट्ठा करना ही इसकी कुल जमा दौड़ है। तो इसकी आत्मा ज्यादा से ज्यादा एक लोहे की तिजोड़ी हो सकती है।
और क्या हो सकती है? इसकी आत्मा का और क्या होगा मूल्य? इसकी आत्मा रुपए से भी छोटी होगी। तभी तो रुपए के प्रति इतनी आकर्षित और आंदोलित है।
एक आदमी बड़ी कुर्सी पर पहुंचना चाहता है, तो पहुंच जाएगा एक दिन। लेकिन इसकी आत्मा एक मुर्दा कुर्सी से ज्यादा बड़ी नहीं
316