________________
* दक्षिणायण के जटिल भटकाव *
ही नहीं, धुआं ही धुआं पैदा होता है।
की स्वच्छता का खो जाना। गीली और सूखी लकड़ी में फर्क क्या है ? गीली लकड़ी अभी भी | | इसलिए आपने देखा होगा अनेक हठयोगियों को, कि वे बड़ी जीवन के प्रति आतुर है, रस से भरी है। अभी भी जीवन का | | साधना में रत होते हैं, लेकिन बुद्धिमान नहीं मालूम होते, जल-स्रोत उसमें बहता है। अभी भी जीव-ऊर्जा उसमें प्रवाहित है। ईडियाटिक मालूम होते हैं। सूखी लकड़ी मृतवत है, मुर्दा है। जीवन का सब रस-स्रोत सूख गया। एक व्यक्ति को अभी मुझे किसी ने मिलाया था। वे दस वर्ष से है। अब कोई धारा रस की उसमें नहीं बहती, इसलिए सूखी है। । | खड़े हुए हैं। बैठे नहीं, सोए नहीं। सोते भी हैं, तो खड़े हुए ही सहारा
जितना वासना भरा मन हो, उतना गीला है, उतनी लकड़ी गीली | लेकर। लेकिन पैर उन्होंने दस वर्ष से नहीं मोड़े। पैर करीब-करीब है अभी। अभी बहुत रस बहता है।
जम गए हैं, मोटे हो गए हैं, जैसे हाथी-पैर की बीमारी में पैर हो तो जिसने अपनी कामवासना को रोक लिया बाहर जाने से, | | जाएं, वैसे हो गए हैं। अब शायद मुड़ भी नहीं सकते। दस वर्षों में वासना तो रुक जाएगी, रस नहीं रुकता है। ऊर्जा रुक जाएगी, एनर्जी | | सब जाम हो गया होगा। मसल्स ठहर गए होंगे, खून भर गया रुक जाएगी, लेकिन वह जो वृत्ति का रस था भीतर, वह नहीं रुकता | होगा, हड्डियां सख्त हो गई होंगी, मोड़ों ने मुड़ना छोड़ दिया होगा। है। वह रस अभी भी भीतर बहा जा रहा है। वह रस गीलापन है। । । दस वर्ष से वे यह कर रहे हैं। टम वर्ष __इसलिए प्रतीक कृष्ण ने चुना है, धूम का, धुएं का। अब नीचे निश्चित ही, बड़े संकल्प की जरूरत है। बड़े संकल्प की जरूरत की तरफ बढ़ने पर जो पहली घटना घटती है, वह गहन धुएं का है! दस घंटे भी खड़ा रहना मुश्किल पड़ेगा। संकल्प है, इसमें कोई अनुभव है।
शक नहीं। लेकिन अगर उन व्यक्ति की आंखों में देखें, तो परम अगर कभी आपने जबरदस्ती किसी वासना को रोका हो, तो मूढ़ता दिखाई पड़ती है, ईडियाटिक; इम्बेसाइल। आंख में कहीं भी आपको सफोकेशन, बड़ी भीतर रुकावट और भीतर सब कोई बुद्धिमत्ता की किरण दिखाई नहीं पड़ती। संकल्प महान है। धुआं-धुआं हो गया, ऐसी प्रतीति भी हो सकती है। ज्योति की जो काश, इतना ही संकल्प ऊर्ध्वगमन में होता, तो शायद वह प्रकटता है, स्पष्टता है—निर्धूम ज्योति की—वह कभी दबी हुई, | | सहस्रार को छेद कर जाता। लेकिन यह संकल्प ऊर्जा का दबाई गई वासनाओं में अनुभव नहीं होती।
ऊर्ध्वगमन नहीं बन पा रहा है, यह संकल्प भी किसी सुख को पाने इसलिए दबे हुए व्यक्ति बहुत धुआं-धुआं हो जाते हैं। उनके का संकल्प है। यह संकल्प भी सुख प्रेरित है। तो सब तरह से अपने भीतर सब धुंधियारा हो जाता है। और सब तरफ से उनके भीतर | को रोक लिया है। स्पष्टता खो जाती है, क्लैरिटी खो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी | ___ अब जो आदमी दस वर्षों से सीधा खड़ा है, उसकी कामवासना वासना को रोका तीव्रता से, उसके भीतर जो स्पष्टता होनी चाहिए | बिलकुल थिर हो जाएगी। क्योंकि सारी मसल्स, जो कामवासना चित्त की, वह खो जाती है। और दर्पण पर जैसे धुआं जम जाए, | के काम में आती हैं, वे सब जड़ हो जाएंगी, उनकी फ्लेक्सिबिलिटी ऐसा उसके चित्त पर भी धुआं जम जाता है। फिर उसमें कुछ | खो जाएगी। उसकी जननेंद्रिय का पूरा का पूरा यंत्र जो है, विकृत ठीक-ठीक प्रतिफलित नहीं होता। फिर साफ-साफ कुछ भी दिखाई | हो जाएगा, अवरुद्ध हो जाएगा और ऊर्जा इकट्ठी हो जाएगी। नहीं पड़ता। फिर वह अंधेरे में अंधे जैसा टटोलने लगता है। | लेकिन वह ऊर्जा नीचे की तरफ बहेगी।
सभी वासनाएं अंधी हैं और सभी वासनाएं अंधेरे में टटोलती हैं। | अब इस व्यक्ति के पैरों में खून ही ज्यादा है, ऐसा नहीं, इस और अगर एक बार किसी ने ऊर्जा को रोक लिया, तो बहुत गहन | | व्यक्ति के पैरों में बायो-एनर्जी भी ज्यादा है। समस्त कामवासना, धुआं भीतर पैदा होता है। यह धुआं अगर बढ़ता ही चला जाए नीचे समस्त वासना इसके पैरों में प्रविष्ट हो गई है। इसका सारा जीवन की ओर, तो शीघ्र ही रात्रि में परिवर्तित हो जाता है। गहन हो गया | | ही पैरों में चला गया है। अगर ठीक से समझें, तो इसका सिर अब धुआं, सघन हो गया धुआं, रात्रि का अंधकार बन जाता है। | खोपड़ी में नहीं है, इसका सिर अब पैरों के तलुओं में है। इसकी
जैसे दिवस बन जाती है ज्योति, ऐसे ही धुआं बन जाता है रात्रि। आंखों में से तेजस्विता चली जाएगी। धुंधियारी हो गईं आंखें, उन अग्नि है बीच में, ऊपर बढ़े तो ज्योति, नीचे बढ़े तो धुआं। और पर धुएं की जाली आपको स्पष्ट दिखाई पड़ सकती है। आंखों के ऊपर बढ़ें तो दिन, और नीचे आएं तो रात्रि। धुएं का अर्थ है, चित्त भीतर कोई ज्योति नहीं दिखाई पड़ती, कुछ जलता हुआ दिखाई नहीं
143