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________________ * गीता दर्शन भाग-44 पड़ता। आंखों के भीतर कोई प्रकाशित चित्त और चेतना है, यह भी कहते हैं, कोई विचार भी नहीं चलते। लेकिन वे निर्विचार स्थिति में दिखाई नहीं पड़ता। आंखों के भीतर गहन अंधकार हो गया है। जड़ नहीं हैं; अविचार की स्थिति में हैं। हो गई हैं, जिसको हम कहते हैं पथरीली आंखें, वैसी हो गई हैं। यह फर्क समझ लेना चाहिए। चेहरे पर किसी तरह की बुद्धिमत्ता की कोई झलक नहीं है। चेहरा निर्विचार स्थिति में वह व्यक्ति है, जो चाहे तो विचार कर सकता आदमी का कम और पशु का ज्यादा मालूम पड़ता है। पड़ेगा ही! | | है, लेकिन विचार नहीं करता। और अविचार की स्थिति में वह पड़ेगा ही, क्योंकि जो भी किया है, उस करने में और मनुष्यता की | | व्यक्ति है, जो चाहे भी तो विचार नहीं कर सकता है। नपुंसकता ऊंचाइयों को छूने का उपाय नहीं हुआ है, बल्कि प्रकृति से भी नीचे, | और ब्रह्मचर्य में जो फर्क है, वैसा ही फर्क निर्विचार और अविचार बिलो नेचर, प्रकृति से नीचे गिर जाने की व्यवस्था हुई है। लेकिन एक बात पक्की है, इस आदमी को दुख मिलने बंद हो नपुंसक भी एक अर्थ में ब्रह्मचारी है। लेकिन वह ब्रह्मचारी गए हैं। यह आदमी अब दुखी नहीं है। यह आप ध्यान रखना, यह | | इसलिए नहीं है, कि ब्रह्मचारी न होना चाहे, तो स्वतंत्र नहीं है। ऊर्जा आदमी दुखी बिलकुल नहीं है। और जितने इसके दुख गिर गए हैं, | ही नहीं है, पुंसत्व ही नहीं है। वह चाहे तो भी ब्रह्मचर्य को नहीं तोड़ उसी मात्रा में इसे हम सुखी भी कह सकते हैं। और जो काम ऊर्जा | सकता। और जो ब्रह्मचर्य चाहकर तोड़ा न जा सके, उस ब्रह्मचर्य बाहर जाकर क्षणिक सुख लाती थी, वही काम ऊर्जा, इसके नीचे | का क्या मूल्य हो सकता है! ब्रह्मचर्य तो वही है—जीवंत, के हिस्से के शरीर में वर्तुल बनाकर भी इसे सुख दे रही है। वह | | पोटेंशियल, शक्तिवान-जो चाहा जाए, तो तोड़ा जा सके। बहुत भीतरी सुख है। | लेकिन नहीं चाहते, नहीं तोड़ते, यह अलग बात है, यह.भिन्न बात इसलिए अब यह आदमी अपने पैरों को मोड़कर कभी बैठेगा भी है। ऊर्जा भीतर है, उसके प्रवाह की मालकियत हमारे हाथ है। नहीं। क्योंकि अब इसे जो एक बहुत ही अंधकारपूर्ण सुख मिलना | लेकिन ऊर्जा ही भीतर नहीं है! जो धन आपके पास नहीं है, उसको शुरू हुआ है, एक बहुत तामसिक सुख मिलना शुरू हुआ है, उसे अगर आप खर्च नहीं करते, तो आप किस स्थिति में धनी हैं! छोड़ना कठिन है। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन मरा, तो उसने अपनी वसीयत . एक व्यक्ति को मैंने देखा है, जो वर्षों से कांटों पर लेटे रहते हैं। | लिखी। और वसीयत में उसने लिखा कि मेरी समस्त संपत्ति का उनकी आंखों की भी यही हालत है, धुआं-धुआं। शरीर को उन्होंने आधा हिस्सा मेरी पत्नी को मिले, शेष आधे में लड़कों को, सख्त पत्थर जैसा कर लिया है। लेकिन शरीर को पत्थर जैसा करते लड़कियों को सबको बांटा जाए। और सब बांट देने के बाद, जब साथ ही मन भी पत्थर जैसा हो जाता है। असल में शरीर और मन वह सब बांट चुका, तो उसके वकील ने पूछा, लेकिन आप की लोच, सेंसिटिविटी साथ-साथ चलती है। जितना शरीर | परसेंटेज तो लिखा रहे हैं कि पचास प्रतिशत इसको, दस प्रतिशत लोचपूर्ण होता है, उतना ही मन लोचपूर्ण होता है। | इसको, संपत्ति कितनी है ? मुल्ला ने कहा, संपत्ति तो बिलकुल नहीं मन से मुक्त होना है जरूर, लेकिन मन को पत्थर जैसा करके। | है। लेकिन नियमानुसार वसीयत लिखनी चाहिए, इसलिए वसीयत जो मुक्त होने की कोशिश करेगा, वह मुक्त नहीं हो रहा है, केवल । | लिखता हूं। और मुल्ला ने कहा, आपने बीच में टोक दिया, अभी जड़ हुआ जा रहा है। मन से मुक्त होने का अर्थ जड़ता को पा लेना | मुझे कुछ और लिखवाना है! पर उस वकील ने कहा कि सौ परसेंट नहीं है। लेकिन जड़ता भी अगर कोई पा ले, तो एक अर्थ में मन तो पूरा हो गया! जो नहीं है, उसका सौ प्रतिशत बंट चुका! मुल्ला से मुक्त हो जाता है, क्योंकि मन की चंचलता मिट जाती है, नष्ट | | ने कहा, नीचे इतना और लिखो कि जो शेष बचा हो, वह मस्जिद हो जाती है। को दे दिया जाए। जो नहीं था, वह सौ प्रतिशत बांटा जा चुका। अब तो उनके मन में कोई चंचलता नहीं है अब। अगर उनसे आप | भी अगर कुछ शेष बचा हो, तो वह मैं मस्जिद को दान करता हूं! पूछे कि आपको कोई स्वप्न आते हैं? तो वे कहते हैं, कोई स्वप्न । इस तरह की मनोदशाएं भी हैं। जब जो हम नहीं कर सकते हैं, मुझे वर्षों से नहीं आए। वे कांटे पर लेटे रहते हैं, उन्हें कोई स्वप्न हम सोचते हैं, हमने उसका त्याग कर दिया है। इस कांटों पर लेटे नहीं आएंगे। क्योंकि स्वप्न आने के लिए मन में सक्रियता चाहिए;। हुए साधक को देखकर मैंने उनसे पूछा था कि विचार उठते हैं? वह सक्रियता खो गई है। उनसे पूछिए, कोई विचार चलते हैं? वे| उन्होंने कहा, विचार! नहीं। 144
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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