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________________ * तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार * बात की जाती है? तो उस आदमी ने कहा, रुको। मैं महीने, पंद्रह। के लिए गुरु सिद्ध होते हैं, जो गुरु से भी मुक्त होने की क्षमता, दिन में वापस लौटंगा सुसंस्कृत होकर! नसरुद्दीन ने कहा कि में साहस से भरे हैं। रुक सकता हूं महीने, पंद्रह दिन। लेकिन जिस आदमी को शब्दों नहीं तो गुरु भी बंधन बन जाते हैं। नहीं तो शास्त्र भी बंधन बन का भी ठीक-ठीक बोध नहीं, बोलचाल की भाषा भी ठीक नहीं। | जाते हैं। नहीं तो वे शब्द भी, जो सत्यों के लिए प्रयुक्त किए हैं, वे आती, उसके हाथ से निकाला जाना पसंद नहीं कर सकता हूं। । भी केवल कारागृह ही सिद्ध होते हैं और हम उनमें कैद हो जाते हैं। शब्द से घिरे हुए लोग, संसार में नसरुद्दीन जैसा कुएं में पड़ा है, कृष्ण कहते हैं, जो तत्व से जान लेता है योगी, वह सबसे मुक्त ऐसे पड़ जाते हैं। अगर कबीर जैसा आदमी आकर उनका द्वार हो जाता है। खटखटाए, तो उन्हें बिलकुल न जंचेगा। क्योंकि कबीर वेद को __लेकिन वेद से ही नहीं। उन्होंने और बातें भी कही हैं। उन्होंने बिलकुल नहीं जानते। अगर नानक उनका हाथ पकड़कर कहें कि | | कहा, यज्ञ से भी मुक्त हो जाता है। क्योंकि यज्ञ से अर्थ है, समस्त आओ, मैं तुम्हें कुएं के बाहर निकाल लं; तो वे कहेंगे कि संस्कृत | क्रिया-कांड, रिचुअल, धर्मों का समस्त क्रिया-कांड। धर्मों के कहां तक पढ़ी है? काशी में कितने दिन रहे हो? कितने वेदों के | | समस्त शास्त्र-ज्ञान से अर्थ है, वेद। धर्मों के समस्त रिचुअल, जानकार हो? नानक को किसी वेद का कोई भी पता नहीं है। और | | क्रिया-कांड, उससे अर्थ है, यज्ञ। उससे भी मुक्त हो जाता है। फिर भी वेदों में जो कहा है, वह सब पता है। और कबीर ने कोई | | क्योंकि जिसने अपने भीतर परमात्मा को जाना, अब कोई भी वेद पढ़ा नहीं है, फिर भी वेदों में जो कहा है, कबीर जितना जानते | | क्रिया, अब कोई भी कर्म, अब कोई भी रिचुअल, कोई भी हैं, वेदपाठी नहीं जानते। उपासना-पद्धति व्यर्थ हो गई। अब बाहर दौड़ने का कोई प्रयोजन ___ जानने का एक और द्वार भी है सीधा, इमीजिएट, माध्यम से न रहा। मुक्त, शब्द से मुक्त, उसको ही तत्व-ज्ञान कहा है; वही है| | | जिसने भीतर की ही अग्नि को जान लिया, अब बाहर अग्नियां तत्व-ज्ञान। उस तत्व-ज्ञान को जो उपलब्ध होता है, तब फिर वेदों । | जलाकर वह उनकी पूजा करने बैठेगा, तो पागल है। और अगर का पढना और यज्ञ करना. और तप और दान इन सभी का कभी बैठ भी जाता हो. तो सिर्फ इसीलिए कि जिन्होंने भी भीतर की उल्लंघन कर जाता है। इन सब का फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता। अग्नि नहीं जलाई है, शायद उनके लिए सहयोगी हो सके। और ये सब उनके लिए हैं, जिन्होंने अभी जानने की वास्तविक यात्रा | अगर खंडन भी नहीं करता है कि यह व्यर्थ है, तो सिर्फ इसीलिए शुरू ही नहीं की है, जिन्होंने अभी खोज के ऊपर पहला कदम ही | कि जिनको अभी भीतर का कोई पता नहीं, शायद बाहर की अग्नि नहीं रखा है। भी उनके लिए प्रतीक बने, सहयोगी बने, यात्रा में साथी हो जाए। बहुत हैं लेकिन ऐसे लोग, जो शब्दों के संग्रह को सोच लेते हैं लेकिन जब भी ऐसा व्यक्ति देखेगा कि बाहर की अग्नि भीतर ज्ञान की उपलब्धि। जो इकट्ठा करते जाते हैं शब्दों को, शास्त्रों को, की अग्नि तक पहुंचने में सहयोगी न रही, बाधा बन गई, तो विरोध और सोचते हैं कि मुक्ति करीब आ रही है। उन्हें पता नहीं कि वे भी करता है, खंडन भी करता है। और इसीलिए निरंतर धार्मिक केवल शब्दों के बोझ से और भी दबे जा रहे हैं। मुक्ति शायद और व्यक्ति पुराने रिचुअल्स, पुराने क्रिया-कांड के विपरीत पड़ जाते भी दूर हुई जा रही है। शायद शब्दों का, शास्त्रों का बोझ उन्हें और दिखाई पड़ते हैं। लेकिन तय करना मुश्किल है कि वह क्या करेगा। भी संसार की गहरी पर्तों में डुबाने वाला सिद्ध होगा। क्योंकि शास्त्र | | अगर आप यज्ञ कर रहे हों, तो वैसा योगी जिसने तत्व से जाना बोझ ही बन जाते हैं, सत्य ही मुक्ति बनता है। है, क्या करेगा, कहना मुश्किल है। अगर उसको आपके भीतर भी लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वेदों का कोई उपयोग नहीं है। | बाहर जलती अग्नि की थोड़ी-सी भी झलक दिखाई पड़े, तो वह इसका यह भी अर्थ नहीं कि वेदों में रहस्य नहीं छिपा है। इसका यह बराबर आपके यज्ञ का सहयोग करेगा। लेकिन अगर आपके भीतर भी अर्थ नहीं कि शब्द की सामर्थ्य नहीं है। लेकिन शब्द की सामर्थ्य | धुआं ही धुआं, अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़े और बाहर की भी उसी के लिए है, जो शब्द पर रुकने के लिए तैयार नहीं है, शब्द | | अग्नि उस अंधकार को और भी बढ़ाती हो, तो वह निश्चित ही के पार जाना चाहता है। और वेद भी उसके लिए सहयोगी हो जाता विरोध करेगा। है, जो वेद को पार करने की क्षमता रखता है। और गुरु केवल उन्हीं । इसलिए ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य निरंतर असंगत होंगे, 161
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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