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*गीता दर्शन भाग-4
पड़ेगी तो आधी रात मौजूद नहीं होगा, ऐसे शक का क्या कारण था? कोई अनुभव है तेरा ऐसा? वह पांच रुपए बांट दे ! अन्यथा कूंगा और यह मरते क्षण मेरे ऊपर इल्जाम रह जाए कि मोहम्मद, कुछ साथ था, तब मरे । जिंदगीभर की फकीरी को खराब किए देती है !
पत्नी बाहर गई । चकित हुई देखकर, एक भिखारी द्वार पर खड़ा है! मोहम्मद ने कहा, देखती है! जब लेने वाला आधी रात को आ सकता है, तो देने वाला क्यों नहीं आ सकता? यह आधी रात, अंधेरा, कोई बस्ती में दिखाई नहीं पड़ता, पक्षी भी पर नहीं मारते, और दरवाजे पर आदमी भिक्षा पात्र लिए खड़ा है! फिर भी तेरी आंख नहीं खुलती ? दे आ!
वह उसको देकर आ गई, लौटकर आई। मोहम्मद ने, कहते हैं, चादर ओढ़ी; और उनकी अंतिम सांस निकल गई।
जो जानते हैं, वे कहते हैं कि मोहम्मद की सांस अटकी रही, उन पांच दीनार की वजह से। वह अड़चन थी, वह बोझ था, वह पत्थर की तरह जमीन से उन्हें खींचे रहा। वह पत्थर जैसे ही हटा गर्दन से, उन्होंने पंख पसार दिए और किसी दूसरी यात्रा पर चले गए। योग-क्षेम मैं ही सम्हाल लेता हूं, कृष्ण कहते हैं।
उतने भाव से, फिर जो भी हो, वही क्षेम है, ध्यान रखना आप ! इसका यह मतलब नहीं है कि वैसे व्यक्ति को कभी मुसीबत न आएगी। इसका यह मतलब भी नहीं है कि उसे रोज सुबह चेक उसके हाथ में आ जाएगा ! ऐसा कोई मतलब नहीं है । अगर इसे ठीक से समझेंगे, तो इसका मतलब यह है कि सुबह जो भी हाथ में आ जाएगा, वही उसका क्षेम है। जो भी उसे आ जाएगा हाथ में - भूख, तकलीफ, सुख, दुख – जो भी, वही परमात्मा के द्वारा दिया गया क्षेम है। वह उसे ही अपना क्षेम मानकर आगे चल पड़ेगा।
और योग और भी कठिन बात है। कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं सम्हाल लेता हूं।
उसका मतलब? ऐसे उपासक को न साधना की जरूरत है, न साधन की जरूरत है; न तप की जरूरत है, न यज्ञ की जरूरत है; न किसी विधि की जरूरत है, न किसी व्यवस्था की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति को परमात्मा से मिलने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर निष्काम उपासना उसका भाव है, तो मैं उसे मिल ही जाता हूं। वह मिलने का काम मैं सम्हाल लेता हूं।
ऐसी बहुत कथाएं हैं, बड़ी मीठी, और मनुष्य के अंतरतम के बड़े गहरे रहस्यों को लाने वाली, जब परमात्मा उपासक को खोजता
| हुआ उसके पास आया है। ये प्रतीक कथाएं हैं; और इनको समझने भूल हो जाती है। इन प्रतीक कथाओं का अर्थ यह होता है कि वे एक इंगित करती हैं एक तथ्य की ओर।
में
अगर उपासक निष्काम भाव में जीता हो, तो उसे परमात्मा को | खोजने भी जाना नहीं पड़ता, परमात्मा ही उसे खोजता चला आता है । आ ही जाएगा। जैसे जब कोई गड्ढा होता है, तो वर्षा का पानी भागता हुआ गड्ढे में चला आता है। पहाड़ पर भी गिरता है, लेकिन पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे अपने से पहले से ही भरे हुए हैं। उनका अहंकार मजबूत है। गड्डा खाली है, निरहंकार है, पानी भागता हुआ आकर गड्ढे में भर जाता है। ठीक ऐसे ही, जहां निष्काम भाव है उपासना का, परमात्मा भागता चला आता है, और हृदय को घेर ता है।
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लेकिन इतनी भी वासना की जरूरत नहीं है— इतनी भी - कि वह आए, कि वह मुझे मिले। यह आखिरी कठिन बात है, जो खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि भक्त अगर यह भी कहे कि तू मुझे मिल, तो भी वासना है।
भक्त तो यह कहता है कि तू है ही चारों तरफ। बस, मैं निर्वासना हो जाऊं, तो तू यहीं है। तू मुझे यहीं दिखाई पड़ जाएगा। मेरी आंख खुल जाए, तो तू यहीं है। सिर्फ मैं आंख बंद किए बैठा हूं, इसलिए तू दिखाई नहीं पड़ता है। भक्त यह नहीं कहता है कि तू आ । इतनी भी वासना नहीं है। इतना ही कि अपने को मिटा देता है। वासना के | खोते ही मिट जाता है।
वासना ही हमारे अहंकार का आधार है। जब तक हम कुछ | मांगते हैं, तभी तक मैं हूं। जब मैं कुछ भी नहीं मांगता, तो मेरे होने का कोई कारण नहीं रह जाता। मैं न होने के बराबर हो जाता हूं। एक खालीपन, एक शून्यता घटित हो जाती है। वही शून्यता उपासना है, वही शून्य परमात्मा की सन्निधि है ।
यह जो व्यक्ति के भीतर वासना से छूटकर शून्य का निर्मित होना इस पर ध्यान दें। इस पर ध्यान दें, तो कोई कारण नहीं है, कोई कारण नहीं है कि जो हमारे लिए बड़े-बड़े शब्द मालूम पड़ते हैं, खाली और व्यर्थ, वे सार्थक और जीवंत न हो जाएं।
परमात्मा एक खाली शब्द है हमारे लिए। इस शब्द में हमारे लिए कुछ भी मालूम नहीं पड़ता कि क्या है। अगर कोई कहता है दरवाजा, तो दरवाज़े में कोई अर्थ है; कोई कहता है पानी, तो पानी में कोई अर्थ है; कोई कहता है वृक्ष, तो वृक्ष में कोई अर्थ है; जब मैं कहता हूं परमात्मा, तब कोई भी अर्थ नहीं है।