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इंद्रिय-निर्मित सीमाएं / विराट-क्षुद्र में होते हुए भी क्षुद्र के परे है / कृष्ण कह रहे हैं : मैं अतळ हूं / बुद्धि कभी न पकड़ पाएगी सत्य को / कृष्ण और अर्जुन की चर्चा ठीक तर्कयुक्त चले तो कृष्ण की हार सुनिश्चित है / विरोध न दिखाई पड़ना-श्रद्धा में या बुद्धिहीनता में / श्रद्धा की गहराई बुद्धि से युक्ति है / विज्ञान की बेचैनी : इलेक्ट्रांस-कण भी, तरंग भी / इलेक्ट्रांस तर्क नहीं मानते / विपरीत एक साथ मौजूद हैं जीवन में / जीवन की इच्छा—मरने की इच्छा—साथ-साथ / हिंदू-चिंतन में परमात्मा के विपरीत कोई शैतान नहीं है / पापी में होते हुए भी परमात्मा पाप के पार है / भीड़ में रहकर भी भीड़ के बाहर होना / कृष्ण कहते हैं: मैं ही लड़ता हूं, मैं ही लड़ाता हूं / मोहम्मद के हाथ में तलवार–पूर्ण अहिंसक / कर्ताशून्य कृत्य / सब करते हुए भी अछूते बने रहना।
जगत एक परिवार है ... 197
जीवन सुनियोजित लयबद्धता है, या एक अराजक दुर्घटना? / दुर्घटना मानने पर जीवन से दिशा और अर्थ खो जाएगा/मनुष्य चेतना को अराजकता पसंद नहीं / जगत अराजक है, तो कुछ भी सही-गलत न होगा / प्राणों की गहराई में व्यवस्था की मांग / ईश्वर की धारणा का आधार-जीवन एक अर्थगर्भित सुव्यवस्था है / विचार व्यवस्था की मांग / अंतरऐक्य और अंतर्व्यवस्था / जगत की अंतर्व्यवस्था अदृश्य है / जगत एक परिवार है / विश्व के इंच-इंच में व्यवस्था की छाप है / बीज में छिपा है पूरा वृक्ष / गर्भाधान के अणु में पूरा व्यक्ति छिपा हुआ है / बीज को तोड़ने पर वृक्ष नहीं मिलेगा / वृक्ष के प्रगटीकरण की पूरी प्रक्रिया जरूरी / प्राणों में विकास की गहन प्यास / सदा आगे की ओर विकास / जगत एक सचेतन विकास है / गतिमान, विकासमान चेतना में होता है आनंद / अवरुद्ध चेतना में है दुख, पीड़ा / ईश्वर विकास का अंतिम बिंदु है / अस्तित्व के पांच तल–अस्तित्व, जीवन, मन, ध्यान और परमात्मा / अंत में वही प्रकट होता है, जो प्रथम में छिपा है / कल्प के अंत में सब परमात्मा में लीन / जगत एक वर्तुलाकार यात्रा है। समस्त गतियां-वर्तुलाकार / बूढ़ा पुनः बालवत हो जाता है / नए कल्प की शुरुआत--पिछले कल्प के कर्मानुसार / विराट सृजन और विनाश के बावजूद भी परमात्मा को कोई बंधन नहीं / खेल में अनासक्त रहना सरल / खेल को भी काम बना लेना / बच्चे अनासक्त होते हैं खेल में / बद्ध का . संस्मरण : बच्चों को रेत का घर बनाते देखना / जगत परमात्मा की लीला है / ईसाइयत की धारणा में ईश्वर ने छह दिन में जगत को बनाया, फिर थककर सातवें दिन विश्राम किया / हिंदू-धारणा में ईश्वर बहुत गैर-गंभीर है / सृष्टि परमात्मा के आनंद की अभिव्यक्ति है | जीवन को लीला बना लेने वाला व्यक्ति मुक्त हो जाता है / सभी काम कुरूप हो जाते हैं / मां और नर्स का फर्क / हमारे गंभीर महात्मा / हिंदू धर्म के प्राण निकल गए / कर्म अनासक्त हो, तो बंधन नहीं होता।
विराट की अभीप्सा ... 211
परमात्मा कैसे सृजन करता है? / कैटेलिटिक एजेंट का नियम / केवल उपस्थिति जरूरी / गुरु अर्थात जिसकी मौजूदगी में आदर उत्पन्न हो/सर्योदय के साथ कलियों का खिलना, पक्षियों का चहचहाना / बिजली की उपस्थिति में ही हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिलकर पानी बनना / सृष्टि में नहीं सृजन की प्रक्रिया में परमात्मा की झलक मिलेगी / रवींद्रनाथ पर कविता का अवतरण / गुरदयाल मलिक का छिपकर देखना / कवि और ऋषि का फर्क / गर्भवती स्त्री का सौंदर्य / स्त्रियों ने बाह्य जगत में बहुत सृजन नहीं किया / सृजनात्मक होना–परमात्मा के खोजी का जरूरी गुण / अहिंसा का अर्थ है सृजन / असृजनात्मक अहिंसा नपुंसक है / परमात्मा स्रष्टा नहीं-सृजनात्मकता का प्रवाह है / मृत वस्तुओं से घिरा आधुनिक मनुष्य / आधुनिक कला / मूढ़ लोग मुझ देहधारी परमात्मा को तुच्छ समझते हैं / मूढ़ अर्थात वह अज्ञानी जिसे ज्ञानी होने का भ्रम है / बच्चे मूर्ख हो सकते हैं-मूढ़