________________
भाव और भक्ति ... 47
मृत्यु-क्षण-नए जन्म का प्रारंभ बिंदु / मृत्यु और जन्म के बीच का संध्याकाल / भक्तिभाव का अर्थ / चेतना की दो क्षमता विचार और भाव / विचार-संसार के लिए उपयोगी-परमात्मा की दिशा में बाधक / विचार विज्ञान का जन्मदाता है / विश्लेषण, मृत को जानता है / जीवंत को जानने का मार्ग है-भाव / भाव जुड़कर जानता है / दुनिया भाव से टूटती चली गई है / भाव खो गया है / भक्ति है-भाव का प्रशिक्षण / फूल का रासायनिक विश्लेषण / फूल का सौंदर्य / विचार हिंसात्मक है / सौंदर्य के बोध में कवि का खो जाना / भाव का परमात्मा की ओर प्रवाह भक्ति है / विचार बाहर की ओर दौड़ना है / भाव है-अंतस प्रवेश / विचार से अंतर्यात्रा संभव नहीं है / प्रेम मेरे-तेरे से ग्रसित नहीं होता / भाव जगत में विचार को बाधा न डालने देना / जहां भी भाव का मौका मिले, उसे चूकना नहीं / भक्ति है-भाव का समस्त के प्रति अकारण बहना / तीसरी आंख-संसार के बाहर जाने का द्वार है / विचार कंपन है / जरा-सा कंपन-और ध्यान तीसरी आंख से हट जाएगा / प्रेम से एक निष्कंपता / मृत्यु-क्षण में भृकुटी पर ध्यान हो / लंबा अभ्यास जरूरी / काम केंद्र-आज्ञा-चक्र से ठीक विपरीत / काम केंद्र से ग्रसित मनुष्य / आज्ञा-चक्र में ऊर्जा का प्रवाह / वेद अर्थात ज्ञान / कुरान, बाइबिल भी वेद हैं / वेद के जानने वाले उसे ओंकार कहते हैं / ओंकार अक्षर है, अनाहत है / अस्तित्व ही ध्वनित होता है / ओंकार नाद वाहन है-संसार से मोक्ष में प्रवेश का / नाद पर सवारी और आज्ञा-चक्र से मोक्ष में प्रवेश / आसक्तिरहित यत्न / यत्न ही आनंद हो जाए / संन्यास, प्रार्थना, ध्यान अपने आप में आनंद है / ब्रह्मचर्य-प्रभु-स्मरण-ब्रह्म जैसी चर्या / चर्या से अनुभूति का द्वार / कीर्तन से ओंकार की वर्षा संभव।
योगयुक्त मरण के सूत्र ... 59
इंद्रियां द्वार हैं-चेतना के अंतर्गमन या बहिर्गमन के लिए / एक ही सीढ़ी : दो संभावनाएं-ऊपर जाना, नीचे जाना / स्वयं को छोड़कर भागना संभव नहीं / जैसे आग से बचती फिरे बारूद / कृष्ण कुछ भी छोड़कर नहीं गए / जीवन की सघनता में रहकर रूपांतरण / वृत्ति-विसर्जन से सहज इंद्रिय संयम घटित / चेतना जहां बहती, उस तरफ द्वार खुल जाते हैं / चेतना भीतर से धक्का न दे, तो द्वार बंद रहते हैं / कसमें खाना-द्वंद्वात्मक संघर्ष / मुल्ला: मछली छोड़ी है-शोरबा नहीं / जहां ध्यान-वहीं चेतना प्रवाहित / बाहर जाती ऊर्जा विषाद लाती है, और भीतर जाती ऊर्जा-तृप्ति और आनंद / संयम अर्थात ऊर्जा का अंतर्वर्तुल / ऊर्जा का स्वयं में ही रमण करना / अनुभवों के भिन्न-भिन्न केंद्र / एक केंद्र का काम दूसरे केंद्र से लेना-विकृत है / काम-वासना का चिंतन / प्रत्येक केंद्र अपना-अपना काम करे-तो संतुलन, संयम फलित / मस्तिष्क अनुभव नहीं कर सकता / अनुभव होते हैं हृदय से / पहले भाव-फिर शब्द / प्रेम, प्रार्थना, सौंदर्य के क्षणों में बुद्धि को हटाएं, भाव को मौका दें / प्रेम की मौन अभिव्यक्ति / सौंदर्य बोध शुभ है / घूरना हिंसात्मक है / भाव शुद्ध हो, तो वासना तिरोहित / भावरहित आदमी यंत्रवत हो जाता है | केवल बुद्धि वाला आदमी-कम्प्यूटर जैसा / भावकेंद्र का पुनर्जागरण आज अत्यंत जरूरी / मृत्यु-क्षण में प्राण मस्तक में केंद्रित हो, तो परमगति उपलब्ध / प्राणों का निकलना–अलग-अलग केंद्र से / सहस्रार से प्राण निकलने पर कभी-कभी कपाल का फूट जाना / कपाल क्रिया-सूचक मात्र / प्राण निकलने वाले केंद्र के अनुकूल नया जन्म / अधिकतम लोगों के प्राण जननेंद्रिय से निकलना / जो ठीक से जिया-वही ठीक से मर पाएगा / ध्यान में सफलता का सूचक-भ्रूमध्य पर प्राणों का प्रवाह / मरते समय प्रभु-स्मरण और ओम का उच्चार / नाद का उच्चार आहत नाद है / आहत नाद कंठ से / अनाहत नाद हृदय से / समस्त घर्षणों से शून्य, मौन में ओंकार नाद का गूंजना / ओम निकटतम ध्वनि है / आमेन-ओम का ही दूसरा रूप / यहूदी, ईसाई, मुसलमान-उसे आमेन कहते हैं / भारत के धर्म उसे ओम कहते हैं / न मरने के लिए छीना-झपटी करना / समग्रता से जीवन को भोगने वाला ही मृत्यु का स्वागत कर पाता है / परम गति-विरोधाभाषी शब्द हैं / कोई भी गति परम नहीं / सत्य की सभी अभिव्यक्तियां विरोधाभासी / वह पास से भी पास