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________________ गीता दर्शन भाग - 4 उन्हें हिलाया कि यह क्या कर रहे हो! मरते समय गलती कर रहे हो । जब हृदय की धड़कन धड़कन इसी स्मरण के माला के मनके हो! सदाचार काफी है; यह क्या कर रहे हो ? उन्होंने आंखें खोलीं। मुझे देखा तो कुछ होश आया। कहने लगे कि यह भी मैं भय के कारण ले रहा हूं कि पता । पता नहीं, तो हर्जा क्या है ले लेने में! ले लो। मौत सामने खड़ी है, पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आखिरी क्षण में सिर्फ राम नाम नहीं लिया, . इसीलिए चूक जाएं। तो ले रहे हैं। बदल गई हो। जब ऐसा हुआ हो कि श्वास- श्वास उसी का स्मरण करती हो, धड़कन भी उसी के स्मरण से धड़कती हो, उठना-बैठना - चलना भी उसी के स्मरण से होता हो, तभी मृत्यु उसके स्मरण से हो सकती है। अब यह बिलकुल व्यवसायी की बुद्धि है; धार्मिक की बुद्धि नहीं है। और भयभीत आदमी का लक्षण है यह । स्मरण भय से नहीं होता है, स्मरण तो परम आनंद की स्फुरणा है। तो मृत्यु के क्षण में जो आनंद से स्मरण कर सके, तो ही स्मरण है, अन्यथा स्मरण नहीं है। भयभीत, डर रहे हैं, और कंप रहे हैं कि बचाओ, हे भगवान! अगर तुम हो, तो बचाओ। इससे कुछ न होगा। जहां भय है, वहां प्रभु का स्मरण नहीं। जहां मृत्यु से बचने की आकांक्षा है, वहां प्रभु का कोई स्वाद नहीं। तो कृष्ण कहते हैं, अंत समय में जो मेरे स्मरण को उपलब्ध रहता है, वह मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें कोई भी संशय नहीं। निश्चय ही कोई संशय नहीं, क्योंकि उस क्षण में जिसने अंतर-ज्योति का स्मरण रखा, उसे तो साफ ही दिखाई पड़ता है कि मृत्यु हो नहीं रही है। सिर्फ शरीर छूटता है, जैसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र गिर जाएं, पुराना मकान कोई बदल ले, नए मकान में चला जाए। जो इतने चैतन्य से भरा हुआ भीतर की ज्योति को स्मरण रखता है, वह तो जानता है, यह मौत इस ज्योति जरा-सा, हल्का-सा झोंका भी नहीं दे रही है। कुछ कंपित भी नहीं होने वाला है। वह परम आनंद में प्रतिष्ठित अपने भीतर डूब जाता है। का भय ही उसे लगता है, जिसका शरीर से तादात्म्य हो । जो मानता है, मैं शरीर हूं, वही घबड़ाता है कि छूटा - छूटा — किनारा छूटा - अब मिटे | लेकिन जो मानता है, हम किनारा हैं ही नहीं, सागर हैं, उसे किनारा छूटने से क्या भय लगेगा ! वह तो सागर की खबर सुनकर प्रफुल्लित हो उठेगा। उसके पैर तो नाचने लगेंगे। उसके हृदय में तो घूंघर बंध जाएंगे। वह तो दौड़ उठेगा। वह तो कहेगा, आ गया वह क्षण ! वह तो पीछे लौटकर भी नहीं देखेगा कि किनारे का क्या हुआ। ऐसा व्यक्ति लेकिन तभी इस स्मरण को उपलब्ध हो सकता है, जब जीवनभर उसकी साधना सतत श्वास- श्वास में पिरो दी गई इसलिए इस सूत्र का जो बहुत ही गलत अर्थ हुआ है, घातक, उससे बचना जरूरी है। यद्यपि अर्जुन से भी यही डर कृष्ण को रहा होगा, इसीलिए दूसरे सूत्र में तत्काल उन्होंने कहा, कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में जिस भाव को भी स्मरण | करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस भाव को ही प्राप्त होता है । परंतु सदा उस भाव को ही चिंतन करता हुआ ! अर्जुन की आंख में शायद तत्काल कृष्ण को दिखाई पड़ा होगा कि वह शिथिल हुआ । अर्जुन ने सोचा होगा, तब तो ठीक है। आखिरी समय स्मरण ही करना है न, कर लेंगे। फिर शेष जीवन | को क्यों नष्ट करना इन बातों में शेष जीवन फिर जैसा जीना है, जी लें। तो सूत्र तो हाथ लग गया; मंत्र हाथ लग गया। अंत समय स्मरण कर लेंगे! लेकिन अंत समय पता है, कब है ? यही क्षण भी अंत समय हो सकता है। कोई भी क्षण अंत समय हो सकता है। इसलिए जिसने सोचा, अंत समय कर लेंगे, वह चूक जाएगा। क्योंकि अंत समय तो कोई भी क्षण हो सकता है; यह क्षण भी हो सकता है कि मैं दूसरा शब्द बोल ही न पाऊं, यह शब्द ही अंतिम हो । जिन लोगों ने अखंड नाम-जप की धारणा विकसित की, उसका कारण यही था । उसका कारण यह नहीं था कि आप कितने लाख परमात्मा का नाम लेते हैं। लाख वगैरह का हिसाब फिर दुकानदारी है। | एक से भी काम हो सकता है; करोड़ से भी न हो । यह धर्म का जगत कोई हिसाब - खाते का जगत नहीं है। यहां गणित नहीं चलता है कि कितना । कितना हृदयपूर्वक ! कितनी संख्या नहीं। कितने लाख, तो लोग अखंड कर रहे हैं कि चौबीस घंटे का अखंड जप कर रहे हैं ! 26 अखंड जप का केवल एक ही अर्थ और प्रयोजन है, क्योंकि अंत क्षण कौन-सा होगा, पता नहीं। कोई भी क्षण खाली न जाए जो स्मरण से रिक्त हो, क्योंकि कोई भी क्षण अंत क्षण हो सकता है। इसलिए कोई भी क्षण भीतर खाली न जाए। तो जो भी क्षण अंत क्षण होगा, वह स्मरणपूर्वक होगा। लेकिन कृष्ण को लगा होगा कि खतरा है। इसलिए उन्होंने
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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