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गीता दर्शन भाग-4
जाओगे। उस गड्ढे में गिर जाओ, जिससे नीचा कोई गड्डा न हो, अन्यथा लतियाए जाओगे | लाओत्से ने कहा, मैंने तो शांति और संतुष्टि इसमें पाई, जब मैंने दूसरे को नीचा करना तो दूर, अपने को सबसे नीचा स्वीकार कर लिया। उस दिन के बाद मुझे कोई नीचा नहीं कर सका है।
जीसस ने कहा है, जो आदमी पंक्ति में सबसे अंतिम खड़े होने को राजी है, वही प्रथम हो जाएगा।
लेकिन हमारा क्या होगा, जो पंक्ति में प्रथम खड़े होने के लिए आतुर हैं! हम संघर्ष करेंगे, लड़ेंगे, परेशान होंगे और आखिर में पाएंगे, आगे नहीं पहुंच पाए हैं। संभवतः पंक्ति सीधी नहीं है, सर्कुलर है; गोल घेरे में है। इसीलिए तो कोई आदमी अनुभव नहीं कर पाता कि मैं आगे आ गया। कितना ही दौड़ता है, लेकिन क्यू के आगे नहीं पहुंच पाता। क्यू गोलाकार है, अन्यथा कोई न कोई पहुंच जाता। कोई सिकंदर, कोई नेपोलियन, कोई हिटलर, कोई स्टैलिन कहीं न कहीं पहुंच जाता, और एक दिन कह देता कि ठीक है, मैं क्यू के आखिरी हिस्से में आ गया, नंबर एक हो गया। लेकिन भी कोई पहुंच जाए, वह पाता है कि उसके आगे लोग मौजूद हैं।
इसका एक ही मतलब हो सकता है कि जिंदगी सीधी रेखा में नहीं चल रही है; वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। इसलिए आप एक गोल घेरे में अगर दस-बारह लोग खड़े हैं, उनमें से कोई कितना ही दौड़े, और कितनी ही कोशिश करे, जिंदगी गंवा दे नंबर एक होने के लिए, कभी नंबर एक नहीं हो पाएगा। क्योंकि गोले में कोई नंबर एक होता ही नहीं। हमेशा कोई आगे होता है, कोई पीछे होता है। कहीं भी जाए; हमेशा कोई आगे होता है, कोई पीछे होता है।
लेकिन आकांक्षा ठीक है और आकांक्षा उचित खबर देती है। वह खबर यह है कि जब तक कोई व्यक्ति अपने को परमात्मा के साथ एक. न समझ ले, तब तक हीनता नहीं मिटती । और जब तक हीनता, इनफीरिआरिटी नहीं मिटती है, तब तक ईर्ष्या भी नहीं मिटती । और जब तक हीनता और ईर्ष्या नहीं मिटती है, तब तक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश भी नहीं मिटती । और इस सबका अंतिम परिणाम चिंता और संताप के सिवाय और कुछ भी नहीं होता । लेकिन आदमी चाहता है परम पद। वह परमात्मा को चाहता है। इसका उसे बोध न हो, इसका होश न हो, यह हो सकता है।
एक और तरफ से देखें।
हर आदमी मृत्यु से भयभीत है, कंपित है। हर आदमी डरा हुआ
है । चाहे कितना ही सुरक्षित हो, मौत कहीं किनारे पर खड़ी हुई मालूम पड़ती है, और किसी भी क्षण गर्दन को दबा ले सकती है। हर व्यक्ति डरा हुआ है मृत्यु से ।
छोटा-सा बच्चा पैदा होता है, वह भी डरता है, डरता हुआ पैदा होता है। जोर की खटके की आवाज हो जाए, कंप जाता है। अंधेरा हो, भयभीत होने लगता है। कोई पास न हो, अकेला हो, चीखने-चिल्लाने लगता है। पहले दिन से ही भय में जन्मा हुआ है।
पूरा जीवन एक भय से कंपता हुआ पत्ता है। हम उपाय करते हैं, हम कई तरह के उपाय करते हैं, ताकि मृत्यु से बच सकें। आकांक्षा बिलकुल ठीक है, लेकिन अब तक कोई मृत्यु से बच नहीं पाया, और बच भी नहीं पाएगा।
और अक्सर तो यह होता है, जो मृत्यु से बचने का जितना इंतजाम करते हैं, उतने ही जल्दी अपने ही इंतजाम में दबकर मर जाते हैं। ऐसी हालत हो जाती है, जैसे कोई आदमी मौत न आए, तो अपने चारों तरफ लोहे का एक बख्तर बनाकर पहन ले; लोहे के कपड़े पहन ले, कहीं से मौत न घुस जाए! तो अभी मर जाएगा। | कल के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। हम सब अपनी जिंदगी को चारों तरफ से इतना सुरक्षित कर लेते हैं कि जिंदगी मर जाती है।
जिंदगी असुरक्षा में है। जिंदगी तो असुरक्षा में है, अनसटेंटी में, अनिश्चय में। हम सब निश्चित करके, सब व्यवस्था ठीक से | बिठाकर, उसके भीतर मुर्दे की तरह बैठ जाते हैं। मौत से केवल मुर्दा बच सकता है; जो मर ही चुका है, वह भर बच सकता है। जो जिंदा है वह तो मरेगा ही ।
इसलिए कितना ही हम उपाय करें, उपाय करने में मौत तो नहीं रुकती, जिंदगी गंवा बैठते हैं। उपाय में ही जिंदगी खो जाती है। मौत से बचने का उपाय करते-करते, करते-करते जिंदगी का समय चुक | जाता है। घड़ी का कांटा घूम जाता है और मौत आ जाती है। और हम तब घबड़ाकर कहते हैं कि अभी तो हम सिर्फ मौत से बचने का | इंतजाम कर रहे थे ! यह समय तो हमने मौत से बचने में गंवा दिया ! अभी हम जीए कहां थे?
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जीना समाप्त हो जाता है जीने के इंतजाम में । जीने का मौका ही नहीं मिलता; अवसर नहीं मिलता; सुविधा नहीं मिल पाती। लेकिन आकांक्षा दुरुस्त है। मौत से बचने की आकांक्षा दुरुस्त है, लेकिन दिशा गलत है।
मौत से बचने का एक ही उपाय है कि हम उसे जान लें, जो अमृत है; हम उसे पहचान लें, जो मरता ही नहीं; हम उसके साथ