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नीति और धर्म ... 331
आचरण नहीं, अंतस महत्वपूर्ण है / आचरण है परिधि-अंतस है केंद्र / आचरण ऊपर से आरोपित किया जा सकता है / नैतिक होना आसान है। धार्मिक होकर जीना कठिन है / नैतिकता समाज के लिए सुविधापूर्ण है / नीति–एक जरूरी बुराई है / धार्मिक व्यक्ति निश्चय रूप से नीतिवान / यथार्थ निश्चय वाला व्यक्ति साधु है / यथार्थ निश्चय अर्थात समग्रता / हसन—एक चोर से दृढ़ निश्चय का पाठ सीखना / दृढ़ निश्चय अर्थात अटूट आस्था / दुराचरण-निश्चय की कमी के कारण / चाह मात्र काफी नहीं संकल्प चाहिए / बुरे लोगों में एक तरह की दृढ़ता, एक निश्चय / संकल्पवान दुराचारी-क्षण में रूपांतरित / भय और भक्तिहीनता पर आधारित साधुता / हिटलर का प्रगाढ़ संकल्प / संकल्पहीन व्यक्ति-छिद्रों वाली बालटी की तरह / छोटे-छोटे संकल्पों को पूरा करने का अभ्यास करें / संकल्प को जगाने के प्रयोगः उपवास, रात्रि जागरण आदि / एक संस्मरण : अखंड धूम्रपान की आदत तुड़वाना / छोटे-छोटे संकल्प करें और उन्हें पूरा करें / निश्चय मात्र से रूपांतरण घटित / अनेक शाखाओं में बंटकर नदी की धारा क्षीण / एक धारा में प्रवाहित चेतना बलशाली / भाव की सतत धारा-प्रभु की ओर / मां की सुरति-बच्चे पर सतत लगी / जहां भाव सहज बहे-उसे ही ध्यान बना लेना / हर बात को प्रभु-स्मरण का निमित्त बना लेना / अनैतिक व्यक्ति बाहर अशांतः नैतिक व्यक्ति भीतर अशांत / सदा रहने वाली शांति-प्रभु-मिलन पर / अप्रकट परमात्मा का प्रकट होना-भजन से / भजन है-बीज को जमीन में डालना / भक्त में परमात्मा-परमात्मा में भक्त / प्रभु-कृपा की सतत वर्षा / हम अपना घड़ा उलटा रखे बैठे हैं | हम स्वयं अपने शत्रु हैं / प्रभु-कृपा सब पर समान / व्यर्थ का प्रश्न : चांद पर देवता रहते हैं या नहीं / दूसरा व्यर्थ प्रश्न : दशरथ नपुंसक और लक्ष्मण व्यभिचारी थे या नहीं / एक मित्र स्टेज पर आकर सिद्ध करना चाहते हैं कि रजनीश मूर्ख हैं / गीता में एक नया वाक्य जोड़नाः जिनके दिमाग के स्क्रू ढीले हैं, उनमें भी मैं हूं / व्यर्थ के प्रश्न नहीं-साधना संबंधी प्रश्न पूछे।
क्षणभंगुरता का बोध ... 347
स्त्रैणता और पुरुषता का मनोविज्ञान / प्रत्येक व्यक्ति स्त्री-पुरुष दोनों है / बदलते हुए स्त्री-क्षण और पुरुष-क्षण / पुरुष-चित्त का लक्षण-खोज, पहल करना / स्त्रैण-चित्त का लक्षण-प्रतीक्षा, अप्रयास / सब की आत्माएं तो एक हैं लेकिन मन अलग-अलग/मन के ढांचे के अनुकूल शरीर मिलना / व्यक्तित्व के चार मनोवैज्ञानिक ढांचे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र / भारत का महान प्रयोगः व्यक्तित्व के ढांचे और जन्म की व्यवस्था को जोड़ने की कोशिश / शूद्र-जिसका जीवन शरीर-केंद्रित है / जन्म से तो सभी व्यक्ति शूद्र होते हैं / शरीर ही सब कुछ-शूद्र के लिए / शूद्र भी प्रभु-स्मरण से भर जाए, तो परमात्मा की किरण उपलब्ध / वैश्य-धन, पद, प्रतिष्ठा के लिए जीने वाला / क्षत्रिय आत्म-गौरव और स्वाभिमान के लिए जीता है / ब्राह्मण-ब्रह्म केंद्रित / मृतात्मा द्वारा अनुकूल गर्भ की अचेतन खोज / अनुकूल स्थितियां उपलब्ध हों इसकी व्यवस्था / गर्भ और जन्म पर वैज्ञानिक नियंत्रण की संभावनाएं / वर्ण-व्यवस्था से खतरा हुआ-शोषण और शत्रुता जन्मी / हर प्रयोग के खतरे / परमाणु शक्ति के खतरे / वर्ण का कीमती प्रयोग गलत हाथों में पड़ गया / न कर्म, न जाति, वरन समर्पण की क्षमता महत्वपूर्ण / संसार से सुख चाहते हैं, इसलिए दुख मिलता है / दुख है-टूटी हुई अपेक्षा / दुख स्व-अर्जित है / परिवर्तनशील और क्षणभंगुर जीवन में चीजों को ठहराने की कोशिश से दुख / अमर प्रेम की कविताएं / प्रेम थिर नहीं हो सकता / ज्ञान अर्थात जीवन के नियम को जानकर जीना / क्षणभंगुरता का बोध निराशावाद नहीं है / केवल परमात्मा का प्रेम शाश्वत है / पति में, पत्नी में परमात्मा देखना / पश्चिम में प्रेम, परिवार और विवाह का टूटना-बिखरना / हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता / आदमी के थोड़े पार देखो / संसार से तृप्त मत हो जाना / रुदन, विह्वलता, पुकार-अज्ञात को निवेदित / असहाय पीड़ा की अभिव्यक्ति / ज्ञात की व्यर्थता-अज्ञात का आह्वान / भक्तों का रुदन-योग की प्रक्रिया / रुदन, चीख-पुकार के किसी क्षण में आत्मिक हृदय की धड़कन शुरू /