________________
*गीता दर्शन भाग-4*
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हदि निरुध्य च। | कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को मून्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। १२ ।। | रोककर अर्थात इंद्रियों के संयम को उपलब्ध हो, जो भाव को, मन
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । | को, हृदय में स्थित करे और प्राण को मस्तक में, वह परम गति को यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। १३ ।। उपलब्ध होता है। ___ अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । इंद्रियों को अवरुद्ध करके, इंद्रियों के संयम से क्या अर्थ है ?
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः । । १४ ।। इंद्रियों को अवरुद्ध दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इंद्रियों को जबरदस्ती विषयों से इंद्रियों को हटाकर-झटके से, दमन से। विषयों से हटाकर तथा मन को उद्देश्य में स्थिर करके और | कोई चीज सुंदर लगती है आपको; मन खिंचता है, आकर्षित होता
अपने प्राण को मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में | | है, दौड़ता है, चंचल होता है। एक उपाय तो यह है कि आंखें फोड़ स्थिर हुआ, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को | | लें, या आंखें हटा लें, या भाग खड़े हों उस जगह से। विषय से उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को चिंतन | भाग खड़े हों। जो आकर्षित करता है, उससे दूर हट जाएं। करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति | लेकिन जो आकर्षित करता है, वह गौण है; जो आकर्षित होता को प्राप्त होता है।
| है, वही प्रमुख है। इसलिए जो आकर्षण के विषय से भाग जाएगा, और हे अर्जुन, जो पुरुष मेरे में अनन्य चित्त से स्थित हुआ | वह विषय से तो भाग जाएगा-वह गौण बात थी, निमित्त मात्र सदा ही निरंतर मेरे को स्मरण करता है, उस निरंतर मेरे में | था लेकिन जो आकर्षित हो रहा था, उससे कैसे भागेगा? वह युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं। तो उसके साथ ही चला जाएगा।
धन मुझे खींचता हो, धन मुझे दिखाई पड़ता हो और मेरे प्राण
उस धन को उपलब्ध करने के लिए आतुर होते हों, तो धन से भाग नुष्य की चेतना दो प्रकार की यात्रा कर सकती है। एक | | जाना बहुत कठिन नहीं है। भागने के लिए बहुत बहादुरी की भी 1 तो अपने से दूर, इंद्रियों के मार्ग से होकर, बाहर की | जरूरत नहीं है। अक्सर तो कायर ही भागने में बहुत कुशल होते .
ओर। और एक अपने पास, अपने भीतर की ओर, | हैं। भागा जा सकता है। लेकिन भागकर भी, वह जो मेरे भीतर प्राण इंद्रियों के द्वार को अवरुद्ध करके। इंद्रियां द्वार हैं। दोनों ओर खलते आतर होते थे धन को पाने के लिए वे मेरे साथ ही चले जाएंगे। हैं ये द्वार। जैसे आपके घर के द्वार खुलते हैं। चाहें तो उसी द्वार से ___ इस जगत में स्वयं से भागने का कोई भी उपाय नहीं है। हम बाहर जा सकते हैं, लेकिन तब द्वार खोलना पड़ता है। और चाहें तो | सबसे भाग सकते हैं, अपने को छोड़कर। हम सारे संसार को छोड़ उसी द्वार से भीतर आ सकते हैं, तब द्वार भीतर की ओर खोलना | सकते हैं, लेकिन अपने को नहीं छोड़ सकते हैं। वह हमारे साथ ही पड़ता है। एक ही द्वार बाहर ले जाता है, वही द्वार भीतर ले आता है। | होगा-जंगल में, पहाड़ में, कंदरा में, हिमालय पर। मैं कहीं भी
इंद्रियां द्वार हैं चेतना के लिए, बहिर्गमन के या अंतर्गमन के। | | चला जाऊं, मैं तो अपने साथ ही रहूंगा। हां, विषयों से भाग सकता
लेकिन हम जन्मों-जन्मों तक बाहर की यात्रा करते-करते यह हूं, लेकिन वृत्तियां ? वृत्तियां मेरे भीतर ही रहेंगी। भूल ही जाते हैं कि इन्हीं द्वारों से भीतर भी आया जा सकता है।। __ और एक धोखा भी हो सकता है। जब विषय नहीं होते, तो स्मरण ही नहीं रहता है कि जिस द्वार से हम घर के बाहर गए हैं, ।
| वृत्तियों को गतिमान होने का मौका नहीं मिलता। तो मैं इस भ्रांति में वही भीतर लाने वाला भी बन सकता है।
भी पड़ सकता हूं कि चूंकि अब मेरी वृत्ति गतिमान होती नहीं मालूम यह भूल विचार की निरंतर होती है। यह हमें खयाल नहीं रहता । | पड़ती, इसलिए समाप्त हो गई है। लेकिन इस भ्रांति में पड़ने की कि जिन-मार्गों से हम नीचे गिरते हैं, वे ही मार्ग हमारे ऊपर उठने | | कोई भी जरूरत नहीं है। जैसे ही विषय फिर दिखाई पड़ेगा, वृत्ति के मार्ग भी बन जाते हैं। और जिन सीढ़ियों से कोई नर्क में उतरता पुनः सक्रिय हो जाएगी। है, उन्हीं सीढ़ियों से स्वर्ग में भी चढ़ा जाता है। सीढ़ियां अलग नहीं | यह वृत्ति का निष्क्रिय हो जाना वैसे ही है, जैसे बारूद रखी हो होती, केवल चलने की दिशा अलग होती है।
और अंगारा पड़े और विस्फोट हो जाए। लेकिन अंगारा न पड़े
60