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________________ * दैवी या आसुरी धारा रहती है। लेकिन यहीं व्यर्थ आशा को समझ लेना जरूरी होगा। में आ जाएगा कि दुराशा कैसी है। आदमी आशा करता है भविष्य की। जिसे उसने आज अतीत | | हमने क्या चाहा है? जो भी चाहा है, एक बात पक्की है, वह बना लिया है, वह भी कल भविष्य था। आज का दिन बीत गया, | मिला नहीं है। और ऐसा नहीं कि आपने ही ऐसा किया है। पूछे अतीत हो गया। कल चौबीस घंटे पहले यह भी भविष्य था और | पड़ोसियों से! इतिहास में पीछे लौटें। पूछे उन सबसे, जिन्होंने यही मैंने अपनी आशा का दीया इस चौबीस घंटे पर जला रखा था, आज | चाहा है। किसी को भी नहीं मिला है। आज तक एक भी मनुष्य ने वह भी अतीत हो गया। लेकिन मैं लौटकर भी न देखेंगा कि कल | यह नहीं कहा है कि मुझे दूसरे से सुख मिल गया हो। लेकिन सभी जो मैंने दीया जलाया था आशा का, वह इन चौबीस घंटों में पूरा ने दूसरे से सुख चाहा है। अब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य ने यह हुआ या नहीं! नहीं कहा है कि मैं दूसरे से सुख पाने में समर्थ हो गया हूं। जिन्होंने न, बिना यह फिक्र किए मैं अपने दीए की ज्योति को आगे आने | कहा है कि मुझे सुख मिला है, उन्होंने कहा है, सुख मैंने अपने वाले चौबीस घंटों में सरका दूंगा। रोज अतीत होता चला जाएगा भीतर खोजा, तब मिला। और जब तक मैंने दूसरे के पास से सुख समय, और मैं कभी लौटकर यह न देणूंगा कि मेरी आशा व्यर्थ तो पाने की कोशिश की, तब तक केवल दुख पाया, सुख नहीं मिला। नहीं है? क्योंकि रोज समय बीत जाता है और वह पूरी नहीं होती। _लेकिन हम सभी दूसरे से सुख चाह रहे हैं। दूसरे बदल जाते हैं, वृथा आशा का अर्थ है, इस बात की प्रतीति न हो पाए कि जो | लेकिन दूसरे से सुख चाहना नहीं बदलता। आज मैं एक स्त्री से मैं चाहता हूं, वह चाहना ही व्यर्थ है; वह कभी पूरा नहीं होगा। उस | सुख चाह सकता हूं, कल दूसरी स्त्री से, परसों तीसरी स्त्री से। चाह का स्वभाव ही अपर रहना है। जो में मांगता है, वह कभी नहीं स्त्रियां बदल जाती हैं। आज मैं बेटे से सख चाहता है. कल मित्र मिलेगा। लेकिन समय का धोखा! हम रोज आगे सरका देते हैं, | से चाहता हूं, परसों किसी और से चाहता हूं। आज अपनी मां से पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और कभी यह नहीं सोचते कि जिसे सुख चाहता हूं, आज अपने पिता से सुख चाहता हूं, कल अपनी हम आज अतीत कह रहे हैं, वह भी कभी भविष्य था। उसमें भी | | पत्नी से सुख चाहता हूं, लेकिन दूसरा, दि अदर मेरे सुख का केंद्र हमने आशा के बहुत-बहुत बीज बोकर रखे थे, वे एक भी फलित होता है। और मनुष्य के पूरे इतिहास में एक भी अपवाद नहीं है, नहीं हुए, एक भी अंकुर नहीं निकला, एक भी फूल नहीं खिला। एक भी एक्सेप्शन नहीं है, एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है आज तो पहली तो आशा की व्यर्थता इससे बनती है कि समय बीतता तक कि मुझे दूसरे से सुख मिला। आपको भी नहीं मिला है। चला जाता है, लेकिन जो भूल हमने कल की थी, वही हम आज | लेकिन एक बड़े मजे की बात है। जब दूसरे से सुख नहीं मिलता, भी करते हैं, वही हम कल भी करेंगे। मौत आ जाएगी, लेकिन तब आप एक दूसरी भूल करते हैं। और वह दूसरी भूल यह है कि हमारी भूल नहीं बदलेगी। दूसरे से दुख मिला। जब दूसरे से सुख नहीं मिल सकता, तो ध्यान बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो लौटकर यह देखे कि मैं पचास रखना, दूसरे से दुख भी नहीं मिल सकता। भ्रांति एक ही है। साल जी लिया, कौन-सी आशा पूरी हुई? अगर मैंने चाहा था प्रेम, | कोई सोचता है, दूसरे से सुख मिल जाए, यह हो नहीं सकता। तो मुझे मिला? अगर मैंने चाहा था सुख, तो मैंने पाया? अगर मैंने क्योंकि सुख की सारी संभावना स्वयं से खुलती है, दूसरे से नहीं। चाही थी शांति, तो फलित हुई? अगर मैंने आनंद की आशा बांधी | खलती ही नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे कोई रेत से तेल निकालना चाहे थी, तो उसकी बूंद भी मिली? मैं पचास वर्ष जी लिया हूं, मैंने जो और न निकले। इसमें कोई रेत का कसर नहीं है। रेत में तेल है ही भी चाहा था, जो आशाएं लेकर जीवन की यात्रा पर निकला था, नहीं। दूसरे में सुख है ही नहीं। लेकिन जब दूसरे में विफलता आती जीवन के रास्ते में वह कोई भी मंजिल घटित नहीं हुई। फिर भी मैं है—जो कि आएगी ही–तो हम सोचते हैं, दूसरे से दुख मिला। उन्हीं आशाओं को बांधे चला जा रहा हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी यह दूसरी भूल है। क्योंकि जिससे सुख नहीं मिल सकता, उससे आशाएं ही दुराशाएं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो मैं चाहता हूं, वह | दुख भी नहीं मिल सकता। जीवन का नियम ही नहीं है कि मिले; और वह मैंने चाहा ही नहीं, तब दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं। सब दुख स्वयं के कारण जो कि मिल सकता था। | मिलते हैं और सब सुख स्वयं के कारण मिलते हैं। सुख और दुख हमने क्या चाहा है, उसे हम थोड़ा विस्तार में देखें, तो खयाल का केंद्र स्वयं की तरफ है। लेकिन हमारी आशा के जो तीर हैं, वे 229
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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