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________________ * गीता दर्शन भाग-4* मृत्यु कहां से आ गई। यह मृत्यु कहीं बाहर से नहीं आती। जब मैं सुख चाहते हैं; दुख से बचना चाहते हैं। ऐसे लोग अभी भी मन से जी रहा हूं, तभी मैं मर भी रहा हूं। ही जी रहे हैं। जब आप एक मकान बना रहे हैं, तभी उसका गिरना भी शुरू सकाम का अर्थ है, मन से जीना; अभी कामना मिटी नहीं, अभी हो गया। लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि सौ साल बाद कामना बाकी है। अगर इस जगत की कामना से ऊब गए हैं, तो गिरेगा, हजार साल बाद गिरेगा। गिरने की प्रक्रिया हजार साल में | उस जगत की कामना शुरू है; अगर यहां मकान नहीं बनाना, तो पूरी होगी, लेकिन गिरना शुरू हो गया इसी क्षण। बच्चा पैदा हुआ | स्वर्ग में कोई मकान बन जाए, इसकी चेष्टा करनी है; अगर यहां और मरना शुरू हो गया। सत्तर साल बाद पूरी होगी यह प्रक्रिया।। | धन नहीं जुटाना, तो कोई पुण्यों की संपदा इकट्ठी हो जाए, इसका सत्तर साल बाद आपको पता लगेगा, चाहे आप बचेंगे भी नहीं तब प्रयास करना है। लेकिन अभी उनकी भाषा नहीं बदली; अभी तक। दूसरों को पता लगेगा कि यह आदमी जो सत्तर साल पहले | उनका सोचने का ढंग नहीं बदला; अभी उनकी दृष्टि नहीं बदली; पैदा हुआ था, आज मर गया। लेकिन सत्तर साल पहले जिस दिन | अभी उनका ढांचा वही है। जन्मा था, उसी दिन मौत शुरू हो गई, मरना शुरू हो गया। फिर भी, ऐसे लोग अपने को पापों से छुड़ाते हैं; पुण्य करते हैं; हम रोज जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। इसका मतलब कि हम बुरा नहीं करते, भला करते हैं; वेदविहित कर्म करते हैं; पूजा, यज्ञ, रोज हो भी रहे हैं और नहीं भी हो रहे हैं; बन भी रहे हैं और मिट हवन करते हैं। इन पुण्यों के फलस्वरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर भी रहे हैं। यह एक साथ चल रहा है। ये हमारे दो पैर हैं, बायां और वे स्वर्ग में दिव्य देवताओं के सुखों को भोगते हैं, लेकिन मुझे दायां। जब बायां चलता है, तो दायां रुका मालम पड़ता है; जब | | उपलब्ध नहीं होते। दायां उठता है, तो बायां रुका मालूम पड़ता है। लेकिन बायां | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे स्वर्ग और नर्क में भेद न रहा। इसलिए रुकता है कि दायां उठ जाए, दायां इसलिए रुकता है कि | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे पुण्य और पाप में भेद न रहा। बायां उठ जाए। जब आप लगते हैं कि जवान हैं, तब बुढ़ापा उठ | | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे मृत्यु और जीवन एक हुए। मुझे रहा है। जब आप लगते हैं कि जी रहे हैं, तब मौत भी कदम उठा | | तो वही उपलब्ध होगा, जो चुनाव ही नहीं करता। जो नहीं कहता, रही है। वे दोनों साथ चल रहे हैं। होना, न होना, एक ही अस्तित्व | यह छोडूंगा, वह पाऊंगा; यह नहीं चाहिए, वह चाहिए, ऐसा जो के हिस्से हैं। चुनाव ही नहीं करता; वन हू हैज बिकम च्वाइसलेस, जो बिलकुल कृष्ण कहते हैं, दोनों मैं हूं। | चुनावरहित हो गया, जिसके मन में कोई विकल्प न रहा। जो कहता परंतु जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने | । है, जो भी है, राजी हूं। दुख है, तो दुख से राजी हूं; सुख नहीं वाले, सोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष, मेरे को | चाहिए। सुख है, तो सुख से राजी हूं; सुख के त्याग की भी चिंता यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैं, वे पुरुष अपने | | नहीं करता हूं। जीवन है, तो धन्यवाद। और मृत्यु आए, तो पुण्यों के फलरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं | स्वागत। और नर्क में डाल दो, तो भी तुम्ही को देखता रहूंगा; और के भोगों को भोगते हैं। | स्वर्ग में भेज दो, तो भी तुम्हीं मेरे सुख हो। कृष्ण कहते हैं, लेकिन...। जो ऐसा हुआ, वह तो मुझे उपलब्ध होता है। लेकिन इसके इस लेकिन शब्द पर खयाल रखना-परंतु। यह तो उन्होंने जो | | पहले वे कहते हैं, परंतु ऐसे लोग भी हैं, जो शायद इतनी निर्द्वद्व, बात कही, आत्यंतिक है, अल्टिमेट है, आखिरी है। लेकिन लोग, | | इतनी द्वंद्वातीत, इतनी अद्वैत की दृष्टि को न पा सकें, वे लोग भी वेदों में जो कहा है, उन कर्मों को, यज्ञों को, हवनों को, क्रियाकांडों | | इंद्रलोक को तो पा ही सकते हैं, स्वर्ग को तो पा ही सकते हैं। को करके. अपने को पापों से मुक्त करके स्वर्ग जाने की कामना | _स्वर्ग का मतलब है, जो कम बुरा करेगा, कम पाप करेगा, कम करते हैं, सुख को पाने की कामना करते हैं। दूसरों को दुख पहुंचाएगा, वह ज्यादा सुख पा सकता है-आनंद ___ यह परंतु बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे | नहीं, ध्यान रखना! इसके भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी होगा; लोग अभी भी स्वर्ग और नर्क को बांटते हैं। इसका अर्थ हुआ, ऐसे | आनंद नहीं, सुख पाएगा। लोग अभी भी सुख और दुख को बांटते हैं। ऐसे लोग अभी भी | | आनंद है सुख और दुख दोनों के पार। आनंद वह पाता है, 282
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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