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________________ जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * छोड़िए! अपन अपनी बात शुरू करें। लेकिन अगर कोई पिता कहे, तो हमें लगेगा, हमारी भाषा जो नहीं है और जो है, उन दोनों के बीच कोई अलंघ्य खाई नहीं | | बोली; और कोई फादर कहे, तो लगेगा, कोई विदेशी भाषा बोल है। वे दोनों एक के ही दो रूप हैं। जो नहीं है, वह है में प्रवेश कर | दी। नासमझी है। पिता और फादर जिस शब्द से पैदा हुए हैं, वह सकता है; जो है, वह नहीं है में प्रवेश कर सकता है। लेकिन हम | एक है। ये फासले कितने ही हो जाएं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बांटकर देखते हैं, इससे कठिनाई हो जाती है। है। संस्कृत में जो मूल रूप हैं, वे सारी दुनिया की भाषाओं में फैल आप शांत बैठे हैं; एक मित्र अशांत हो गए; इतनी देर तक शांत गए हैं। थे। शांति अशांति में चली गई। फिर शांत हो जाएंगे। क्योंकि | | इसलिए संस्कृत किसी की भाषा नहीं है, संस्कृत सब भाषाओं कितनी देर अशांत रहेंगे? जब शांति अशांति बन सकती है, तो की भाषा है। लेकिन जल्दी हमारा मन करता है और कठिनाइयां अशांति फिर शांति बन जाएगी। इतनी देर मौन से बैठे थे, क्रोध में खड़ी कर लेता है। मन बांटकर देखता है और बंटकर मुसीबत में आ गए। मौन क्रोध बन सकता है। कितनी देर रहेगा? जब मौन | पड़ जाता है। क्रोध बन सकता है, तो क्रोध फिर मौन बन जाएगा। लेकिन हम कृष्ण कहते हैं, सत भी मैं हूं, असत भी मैं हूं। जो है, वह भी मैं विपरीत में एकता को नहीं देख पाते हैं, उससे अड़चन हो जाती है; | ही हूं; और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूं। यह सबसे कठिन कोटि उससे कठिनाई हो जाती है। आप भी शांत बैठे हैं, आपको खयाल | | है, सबसे कठिन कैटेगरी है; क्योंकि नहीं है को हम सोच भी नहीं भी नहीं आ सकता कि आप भी इसी तरह अशांत हो सकते हैं! | पाते; लेकिन प्रतिपल घटना घट रही है। जो तारा कल नहीं था, वह बिलकुल हो सकते हैं। क्योंकि अब तक वे भी आप ही जैसे बैठे आज निर्मित हो गया है। हुए थे। वैज्ञानिक कहते हैं, रोज नए तारे निर्मित होते हैं। और जो तारा . वह जो विपरीत है, उसमें हम डोल सकते हैं कभी भी, किसी भी कल था, वह आज खो गया है। क्षण में, किसी भी क्षण में। और मन हमारा बांटकर देखता है। ___ आप रात को जब आकाश में तारे देखते हैं, तो आप इस भ्रांति उनके मन को बंटकर दिखाई पड़ गया कि यह हिंदी है, यह अंग्रेजी | | में न रहें कि जो तारे आप देखते हैं, सब वहां हैं। क्योंकि तारों से है; हिंदी होनी चाहिए, अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए! बांटकर जहां भी प्रकाश आने में करोड़ों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं, अरबों वर्ष भी लग हम देखते हैं, वहां विपरीत दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। | जाते हैं। और यह हो सकता है कि वह तारा कभी का मिट चुका अब मजा यह है कि अगर हम भाषाओं के भीतर भी थोड़ा प्रवेश | हो। लेकिन जब वह था, तब उसका प्रकाश चला था, और अब करें, तो हम पाएंगे कि एक ही स्वर गंजता है। सारी दुनिया की | | आज की रात आपको वह दिखाई पड़ता है, वह प्रकाश। हो सकता भाषाओं में अगर हम थोड़ा-सा गहरे उतरें, तो लगता है कि कोई | | है, करोड़ वर्ष पहले वह प्रकाश चला हो, वह तारा कभी का मिट एक ही भाषा बहुत-बहुत ढंग से बोली गई है। और अंग्रेजी और गया। लेकिन उसका प्रकाश पृथ्वी तक आने में समय लगता है। हिंदी तो भीतर इतनी गहरी जुड़ी हैं कि जिसकी हमें कल्पना नहीं हो वह आज की रात आ पाया। आज की रात वह है नहीं। एक तो सकती; सिस्टर लैंग्वेजेज हैं। संस्कृत से दोनों का जन्म हुआ है, | पक्की बात है कि उस जगह तो है ही नहीं, जहां से प्रकाश चला अंग्रेजी का भी और हिंदी का भी। और हिंदी जितनी संस्कृत के | | था। जहां आपको दिखाई पड़ेगा, वहां तो नहीं है। और दूसरी बात करीब है, उतनी ही करीब अंग्रेजी भी है। अगर हम दोनों में थोड़ा | | भी संभव है कि वह मिट ही गया हो, अब कहीं हो ही नहीं। फिर प्रवेश करें, तो हमें पता लगेगा कि दोनों के बीच वैपरीत्य नहीं है, भी दिखाई पड़ रहा है। एक धारा बह रही है। प्रतिपल चीजें बन रही हैं और मिट रही हैं। बनना और मिटना • हिंदी में आप मां कहते हैं, संस्कृत में मातृ कहते हैं, लैटिन और | | एक साथ चल रहा है। अगर हम और गौर से देखें, तो बनना और ग्रीक में मैटर हो जाता है, अंग्रेजी में मदर हो जाता है। वह मदर | मिटना दो अलग-अलग समय में नहीं घटते, एक ही समय में मातृ का ही रूप है, जैसे मां और माता मातृ का ही रूप है। संस्कृत | घटते हैं। जब मैं जवान हो रहा हूं, तभी मैं बूढ़ा भी हो रहा हूं। में पितृ कहते हैं, पितर कहते हैं, हिंदी में पिता कहते हैं; अंग्रेजी में इसीलिए तो पता नहीं चलता कि किस दिन बूढ़ा हो गया। जब मैं वह फादर हो जाता है; पीटर, पैटर और फिर फादर हो जाता है। जी रहा हूं, तभी मैं मर भी रहा हूं। इसीलिए तो पता नहीं चलता कि |281|
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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