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बन के ऐक्य का बोध-अ-मन
जिसके सुख और दुख दोनों की दृष्टि खो जाती है। आनंद तीसरी बात है। आनंद सुख नहीं है। जैसा कि आमतौर से लोग समझते हैं कि आनंद सुख का ही परम रूप है। बिलकुल नहीं है। आनंद का सुख से उतना ही लेना-देना है, जितना दुख से। आनंद न दुख है, और न आनंद सुख है। इसलिए सुख दुख के विपरीत है, दुख सुख के विपरीत है। जिसको विपरीतता दिखाई पड़ रही है, वह सुख दुख में घूमेगा।
कृष्ण अगले सूत्र में कहते हैं कि यह स्वर्ग भी मिल जाए, तो फिर लौटकर आना पड़ेगा। क्योंकि फिर दुख में आना पड़ेगा। जो सुख में गया है, उसे दुख में आना ही पड़ेगा। द्वंद्व में जिसने विभाजन किया है, वह एक से दूसरे में जाएगा। जिसने जन्म को पकड़ा, उसे मरना ही पड़ेगा। जिसने सुख को पकड़ा, पकड़ते ही दुख में जाना शुरू हो गया। . कृष्ण कहते हैं, उसे तो लौट आना पड़ेगा। उसने अच्छे कर्म किए, उसने सदभाव रखे, उसने धार्मिक जीवन जीया, वह स्वर्ग तक पहुंच सकता है। सुख के आखिरी छोर को छू लेगा, लेकिन छूते ही लौटना शुरू हो जाएगा। . जैसे घड़ी का पेंडुलम जाता है बाएं तरफ, आखिरी छोर पर पहुंच जाता है। पहुंचते से ही वापस यात्रा शुरू हो जाती है। दाएं तरफ जाने लगता है।
ठीक ऐसे ही सुख का आखिरी बिंदु आ जाएगा। फिर यात्रा शुरू हो जाएगी वापसी। क्योंकि द्वंद्व में कोई मुक्ति नहीं है। वह वापस लौट आएगा। उसके कर्म चुक जाएंगे और वह वापस जमीन पर खड़ा हो जाएगा। मुझे नहीं पा सकेगा। ___ मुझे तो वही पा सकेगा, जो सत में और असत में, स्वर्ग में और नर्क में, पाप में और पुण्य में, दोनों में ही बिना किसी भेद-भाव के मुझ को ही देख लेता है। फिर कोई उपाय न रहा, फिर टूट गया पेंडुलम। फिर उसकी कोई यात्रा न रही, कोई मोमेंटम न रहा।
कृष्ण का सारा संदेश इस सूत्र में है कि द्वंद्व न दिखाई पड़े। लेकिन मन है, तो द्वंद्व दिखाई पड़ेगा ही। तो इस सूत्र का मतलब हुआ, मन न रहे; नो माइंड, अ-मन पैदा हो जाए। तो ही हम जीवन के ऐक्य को देख पा सकते हैं। ऐक्य ही मुक्ति है और ऐक्य ही आनंद। आज इतना ही।
लेकिन पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। कोई बीच में न उठे।
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