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* क्षणभंगुरता का बोध *
इसे ऐसा समझें कि एक पानी की बूंद - स्याही का ड्रापर होता है, आप स्याही के ड्रापर से एक पानी की या स्याही की बूंद गिरा लें । तो वैज्ञानिक कहते हैं, एक बूंद में जितने इलेक्ट्रांस हैं, अगर पूरी पृथ्वी के लोग - तीन अरब लोग हैं अभी - तीन अरब लोग उन इलेक्ट्रांस की गिनती करने लग जाएं, तो छः करोड़ वर्ष लगेंगे ! एक पानी की बूंद में, जमीन पर जितने लोग हैं, तीन अरब लोग हैं अभी, अगर ये गिनती करने लग जाएं खाएं न, पानी न पीएं, उठें न, सोएं न, बैठें न - कुछ भी न करें, चौबीस घंटे गिनती ही करें, तो छः करोड़ वर्ष ! एक पानी की बूंद में उतने इलेक्ट्रांस हैं!
कहना मुश्किल है कि एक सेकेंड में कितने क्षण हैं, कहना मुश्किल है। इलेक्ट्रांस से तो छोटे किसी हालत में नहीं होंगे। बहुत बारीक है मामला। उतना बारीक हमारे पास होता है! हमें पता भी नहीं चल पाता। बारीक इतना है कि जब आपको पता चलता है, तब तक क्षण आपके हाथ से जा चुका होता है। पता चलने में जितना वक्त लगता है, उतने में वह जा चुका होता है। आपको पता लगता है कि आपको लगा, बारह बजकर एक मिनट, जब आपको पता लगता है, तो बारह बजकर एक मिनट अब नहीं रहा । क्षण सरक गए।
इसका मतलब यह हुआ कि क्षण भी हमारे हाथ में है, यह भी हमें पता नहीं चल पाता। इतना छोटा है क्षण और इतना क्षणभंगुर है जीवन कि हमारे हाथ से कब गुजर जाता है, हमें इसका भी पता नहीं चलता। इस बदलती हुई, भागती हुई समय की धारा में जो जीवन के शाश्वत भवन बनाने की कोशिश करते हैं, वे अगर दुख में पड़ जाते हैं, तो कसूर किसका है?
कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, इस क्षणभंगुर और सुखरहित संसार में तू मुझ को स्मरण कर । और स्मरण के लिए कुछ बातें कहते हैं।
अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, मुझ परमेश्वर को निरंतर भज । श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन कर | मुझ परमात्मा को प्रणाम कर । मेरे शरण हुआ, मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त हो जाएगा।
इन सब बातों का सार तीन शब्दों में आपसे कहना चाहूं । एक, दृष्टि संसार पर मत रखो। वहां कुछ भी हाथ में आएगा नहीं। निराश होने का कोई कारण नहीं; क्योंकि जहां कुछ हाथ में आ सकता है, वह बिलकुल किनारे ही है। संसार से बहुत दूर नहीं, बस जस्ट बाई दि कार्नर । एकदम किनारे, नुक्कड़ पर ही है । जरा
| मुड़ने की बात है और वह दिखाई पड़ जाएगा। संसार पर ध्यान म दो; उसकी तलाश करो, जिसमें संसार बह रहा है, जिसमें संसार उठ रहा है, जिसमें संसार खो रहा है, जिसमें संसार बना है और जिसमें संसार लीन हो जाएगा। उसकी थोड़ी फिक्र करो । आदमी से आंख थोड़ी ऊपर उठाओ; आदमी के थोड़े पार देखो ।
नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से तृप्त हो जाएगा। और लगता है कि वह अभागा दिन हमारे आस-पास है कहीं। आदमी अपने से तृप्त मालूम पड़ता है।
धर्म का अर्थ है, आदमी का अपने से अतृप्त हो जाना, ए बेसिक डिसकंटेंट, एक आधारभूत प्राणों में असंतुष्टि, कि आदमी होना काफी नहीं है, और संसार पा लेना पर्याप्त नहीं है – कोई और खोज ! वही खोज परमात्मा की तरफ उठाती है।
तो पहली बात, संसार से तृप्त मत हो जाना, संसार में खो मत जाना, डूब मत जाना, स्मरण रखना कि पार भी कोई है।
एक मित्र ने पूछा है कि उस पार का हमें कोई पता ही नहीं है, तो हम उसका स्मरण कैसे करें?
वे ठीक कहते हैं। उसका कोई भी पता नहीं है। उसका स्मरण कैसे करें ?
बच्चा पैदा होता है। आपने कभी खयाल किया है, बच्चा पैदा होकर पहला काम क्या करता है? रोता है। इस बच्चे को रोने का भी कोई पता नहीं था । रोता क्यों है? शायद आपको खयाल में भी न हो ! रोता इसलिए है, ताकि सांस ले सके; क्योंकि मां के पेट में उसे सांस नहीं लेनी पड़ती। मां की सांस से ही काम चलता है। मां के पेट में नौ महीने बच्चे के फेफड़े काम नहीं करते। पैदा होते से ही फेफड़ों को काम करना पड़ता है। पता कुछ भी नहीं है बच्चे को कि फेफड़े कैसे काम करें? कैसे श्वास लें? लेकिन एक बेचैनी है। उसका जो पता नहीं है, उसकी भी एक बेचैनी तो है। पूरा यंत्र मांग करता है, तो एक विह्वलता पैदा होती है।
कृष्ण ने उसी विह्वलता की बात कही है। रो उठता है, चीख उठता है। उसी चीखने में सांस भीतर-बाहर हो जाती है, हृदय की धड़कन शुरू हो जाती है। इसलिए अगर बच्चा न रोए, तो डाक्टर चिंतित हो जाते हैं, नर्सों घबड़ा जाती हैं, किसी तरह रुलाओ बच्चे को । | अगर बच्चा नहीं रोया, तो गया! अगर बच्चा न रोए, तो उसका मतलब है कि वह बचेगा नहीं, मर जाएगा। मरा ही हुआ होगा । रो भी नहीं सकता, तो मरा ही हुआ है।
तो दूसरी बात आपसे कहता हूं, परमात्मा का तो आपको पता
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