SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * कि सब बना-बनाया खेल मिट जाए। आदमी दूसरों की प्रशंसा है, यह मोक्ष प्रत्येक के भीतर है। और इसे परम धाम इसलिए कहा करता रहता है, ताकि दूसरे उसकी प्रशंसा करते रहें। सिर्फ एक है कृष्ण ने कि यह पड़ाव नहीं है। इस पर ठहरकर फिर आगे की वजह से कि दूसरे के मत के अतिरिक्त हमारे पास और कोई संपदा यात्रा के लिए तैयारी नहीं करनी है। इस पर आकर सारी यात्राएं नहीं है। दूसरे का ही हमें पता है। अपना हमें कोई भी पता नहीं है। समाप्त हो जाती हैं। मनुष्य जिस दिन भी अपने भीतर प्रवेश करता है, उस दिन ही सुना है मैंने, जापान में एक तीर्थयात्रा के बीच के पड़ाव पर, पाता है कि जिसे वह खोजता था, वह भीतर ही मौजूद है। पहाड़ पर एक मंदिर है। और हजारों लोग वर्ष में एक दिन वहां की मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक आदमी हाजी हो गया है, हज यात्रा करते हैं पैदल। वर्षों से एक फकीर बीच पहाड़ के रास्ते पर की यात्रा करके लौट आया है, तीर्थयात्रा करके लौट आया है। सारा | एक वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था। हर वर्ष यात्री आते और जाते। गांव इकट्ठा है। सिर्फ नसरुद्दीन को छोड़कर सारा गांव हाजी को कभी कोई उस फकीर से पूछ लेता कि तुम इस वृक्ष के नीचे यात्रा देखने गया है। नसरुद्दीन की पत्नी कहती है कि नसरुद्दीन, तुम भी | | पर जाते हुए ठहरे हो या यात्रा से लौटते हुए ठहरे हो? तो वह फकीर अपना यह अधर्म कब छोड़ोगे? ऐसे गांवभर में घूमते-फिरते हो, हंसता और वह कहता कि न हम किसी यात्रा पर जाते हुए ठहरे हैं धूल खाते हो गली-गली की, और आज हाजी गांव में आया है, तो | और न किसी यात्रा से आते हुए ठहरे हैं। स्वभावतः, लोग रुक जाते तुम घर बैठे हो, जब कि सारा गांव जा रहा है! नसरुद्दीन ने कहा और पूछते कि तुम्हारा मतलब क्या है? क्योंकि तुम जहां बैठे हो, कि इसमें कौन-सी प्रशंसा की बात है कि कोई आदमी हज हो। यह तो केवल यात्रा का पडाव है. मंजिल तो आगे है। आया? हां, अगर किसी दिन किसी आदमी के पास हज आ जाए, | तो वह फकीर कहता कि निश्चित ही, बाहर की यात्रा, जिस पर तो मुझे खबर करना। | तुम निकले हो, उसके लिए यह एक पड़ाव है। लेकिन जहां मैं भीतर आदमी तीर्थयात्रा पर चला जाए, लौट आए, इसमें कौन-सी | बैठा हूं, वह वह जगह है, जहां से न आगे जाया जा सकता है, न बड़ी बात है! बहुत लोग आए और गए। किसी दिन तीर्थ किसी | जहां से पीछे लौटा जा सकता है। आया तो मैं भी इसी तीर्थ की यात्रा आदमी के पास आ जाए, मुझे खबर करना, मैं हाजिर हो जाऊंगा। | के लिए था, लेकिन इस वृक्ष के नीचे बड़ी तीर्थयात्रा घटित हो गई, वह ठीक कह रहा है। ऐसी घटना भी घटती है, जब तीर्थ आदमी फिर आगे नहीं जा सका। इस वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे वह घटित हो के भीतर आ जाता है। ऐसी भी घटना घटती है, जब भक्त भगवान गया, जिसने मुझे अपने ही भीतर पहुंचा दिया। अब मंजिल आ गई, को खोजने नहीं जाता और भगवान भक्त को खोजता आता है। । | अब कदम यहां रखने और कदम वहां रखने का भी कोई अर्थ नहीं असल में ऐसी ही घटना घटती है। भक्त के खोजे भगवान कभी रह गया है। अब मैं वहां हूं, जहां सदा था और जहां के लिए सदा. नहीं मिला और कभी मिल नहीं सकता है। भक्त को अगर पता ही से दौड़ता रहा। होता कि भगवान कहां है, तो वह कभी का भगवान को खोज लिया परम धाम का अर्थ है, जिसके आगे अब कोई और यात्रा की होता। उसे कुछ भी पता नहीं है। भक्त क्या कर सकता है? | तैयारी नहीं करनी है। और परम धाम का एक अर्थ और खयाल में भक्त कहीं जाता नहीं। भक्त सिर्फ अपने को खोलता, उघाड़ता | | ले लें, जो और भी जरूरी है। और नग्न करता है। भक्त सिर्फ अपने को उघाड़ता है। और जिस ___ परम धाम का यह अर्थ नहीं है कि जहां आप बहुत-सी यात्राएं दिन भक्त पूरा उघड़ा होता है, नग्न पूर्ण रूप से, कोई वस्त्र नहीं | | करके पहुंच गए। अगर आप बहुत-सी यात्रा करके वहां पहुंचे हैं, उसके चित्त पर, उसकी चेतना पर कोई आवरण नहीं, निरावरण, | तो वह परम धाम नहीं हो सकता, धाम ही हो सकता है। परम धाम उसी दिन भगवान उपलब्ध हो जाता है। भक्त कभी भी यात्रा करके | तो वह है, जहां पहुंचकर पता चला कि जहां हम सदा से थे ही! यह भगवान तक नहीं पहुंचे हैं। जब भी कोई भक्त हो सका है भक्त. | थोड़ी-सी कठिन बात है। परम धाम वह है, जहां पहुंचकर पता चले तब भगवान स्वयं यात्रा करके आ गया है। | कि हद हो गई, यहां तो हम सदा से थे ही! यह जो घटना है, यह जो सनातन अव्यक्त को प्राप्त कर लेना बुद्ध को जब निर्वाण हुआ, बुद्ध को जब समाधि फलित हुई, तो है, कृष्ण कहते हैं, यही मेरा परम धाम है। बुद्ध सात दिन तक तो चुप बैठे रहे। कुछ सूझा ही नहीं। हिले-डुले यह परम धाम प्रत्येक के भीतर है, यह वैकुंठ प्रत्येक के भीतर | | भी नहीं। फिर लोग इकट्ठे होने लगे। उनकी कांति, उनकी आंखों 1115]
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy