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* गीता दर्शन भाग-4
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।। मालूम पड़ते हैं। वे कहते हैं, यह करो और यह मत करो! और ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। २९ ।। | अगर तुम्हारा सदाचरण होगा, तो तुम प्रभु को उपलब्ध हो जाओगे।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । | सदाचरण की बात ठीक ही मालूम पड़ती है। और कौन होगा जो साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। ३० ।।।
कहेगा कि सदाचरण के बिना भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति। कौन है जो कहेगा कि अनैतिक जीवन भी परमात्मा को उपलब्ध हो कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति । । ३१ ।। सकता है! मैं सब भूतों में सम-भाव से व्यापक हूं; न कोई मेरा अप्रिय नीति तो आधार है, ऐसा हम सभी को लगता है। लेकिन नीति है और न प्रिय है। परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, आधार नहीं है। और स्थिति बिलकुल ही विपरीत है। सदाचरण से
वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रकट हूं। कोई परमात्मा को उपलब्ध होता हो, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त हां, परमात्मा को जो उपलब्ध हो जाता है, वह जरूर सदाचरण को हुआ मेरे को निरंतर भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है; उपलब्ध हो जाता है। वह जो परमात्मा की प्रतीति है, वह प्राथमिक क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।
और मौलिक है; आचरण गौण है, द्वितीय है। इसलिए वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने | होना भी यही चाहिए; क्योंकि आचरण बाहरी घटना है और वाली शांति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन,तू निश्चयपूर्वक प्रभु-अनुभूति आंतरिक। और आचरण तो अंतस से आता है; सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। | अंतस आचरण से नहीं आता। मैं जो भी करता हूं, वह मुझसे
| निकलता है; लेकिन मेरा होना मेरे करने से नहीं निकलता। मेरा
अस्तित्व मेरे करने के पहले है। मेरा होना, मेरे सब करने से ज्यादा +वन के संबंध में एक बहुत बुनियादी प्रश्न इस सूत्र में गहरा है। मेरा सब करना मेरे ऊपर फैले हुए पत्तों की भांति है; वह OII उठाया गया है। और जो जवाब है, वह आमूल रूप मेरी जड़ नहीं है, वह मेरी आत्मा नहीं है।
से क्रांतिकारी है। उस जवाब की क्रांति दिखाई नहीं | __इसलिए यह भी हो सकता है कि मेरा कर्म मेरे संबंध में जो . पड़ती, क्योंकि गीता का हम पाठ करते हैं, समझते नहीं। हम उसे कहता हो, वह मेरी आत्मा की सही गवाही न हो। कर्म धोखा दे पढ़ते हैं, दोहराते हैं, लेकिन उसकी गहनता में प्रवेश नहीं हो पाता। सकता है; कर्म प्रवंचना हो सकता है; कर्म पाखंड हो सकता है, बल्कि अक्सर ऐसा होता है, जितना ज्यादा हम उसे दोहराते हैं, और हिपोक्रेसी हो सकता है। मेरे भीतर एक दूसरी ही आत्मा हो, जिसकी जितना हम उसके शब्दों से परिचित हो जाते हैं, उतनी ही समझने | कोई खबर मेरे कर्मों से न मिलती हो। की जरूरत कम मालूम पड़ती है। शब्द समझ में आ जाते हैं, तो | __यह तो हम जानते हैं कि मैं बिलकुल साधु का आचरण कर आदमी सोचता है कि अर्थ भी समझ में आ गया!
सकता हूं पूरी तरह असाधु होते हुए। इसमें कोई बहुत अड़चन नहीं काश, अर्थ इतना आसान होता और शब्दों से समझ में आ है। क्योंकि आचरण व्यवस्था की बात है। मेरे भीतर कितना ही झूठ सकता, तो जीवन की सारी पहेलियां हल हो जातीं। लेकिन अर्थ | | हो, मैं सच बोल सकता हूं; अड़चन होगी, कठिनाई होगी, लेकिन शब्द से बहुत गहरा है। और शब्द केवल अर्थ की ऊपरी पर्त को अभ्यास से संभव हो जाएगा। मेरे भीतर कितनी ही हिंसा हो, मैं छूते हैं। लेकिन शब्द को हम कंठस्थ कर सकते हैं। और शब्द की| अहिंसक हो सकता हूं। बल्कि दिखाई ऐसा पड़ता है कि जिसको ध्वनि बार-बार कान में गूंजती रहे, तो शब्द परिचित मालूम होने | भी अहिंसक होना हो इस भांति, उसके भीतर काफी हिंसा होनी लगता है। और परिचय को हम ज्ञान समझ लेते हैं।
चाहिए। क्योंकि स्वयं को भी अहिंसक बनाने में बड़ी हिंसा करनी इस सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि आचरण महत्वपूर्ण नहीं है। कृष्ण | पड़ती है; स्वयं को भी दबाना पड़ता है; स्वयं की भी गर्दन पकड़नी के मुंह से ऐसी बात सुनकर हैरानी होगी। कृष्ण कहते हैं, आचरण | पड़ती है! महत्वपूर्ण नहीं है, अंतस महत्वपूर्ण है।
यह हो सकता है कि मेरे बाहर क्रोध प्रकट न होता हो और मेरे सब धर्म, जैसा हम सोचते हैं ऊपर से, आचरण पर जोर देते भीतर बहुत क्रोध हो। संभावना यही है कि मैं इतना क्रोधी आदमी हो
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