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________________ तत्वज्ञ - कर्मकांड के पार * आने पर संघर्ष शुरू हो जाता है। वस्तुतः हमें जो आकर्षित करता | है, बहुत गहरे में हम उससे भयभीत हो जाते हैं। और जो हमें आकर्षित करता है, बहुत गहरे में हमें वह शत्रु भी मालूम पड़ता है। क्योंकि हम उसके गुलाम हो जाते हैं, और उसका आकर्षण हमारे ऊपर पजेशन, मालकियत बन जाता है। लेकिन सभी मोह, सभी अटैचमेंट, विपरीत से, अपोजिट से होता है। ठीक अपने समान व्यक्ति को आप प्रेम नहीं कर सकते। समान एक-दूसरे को रिपेल करते हैं। जैसे कि चुंबक, ऋण और धन एक-दूसरे को खींचते हैं। धन और धन को अगर पास लाएं, तो एक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। ऋण और ऋण, एक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। खिंचावट के लिए ऋण और धन चाहिए । निगेटिव और पाजिटिव पोल एक-दूसरे को खींचते हैं। समानजातीय, समानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे को खींचते नहीं । इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही समय में हों, लेकिन एक-दूसरे के पास बिलकुल नहीं आते। पोलेरिटी नहीं है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है कि समानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे से फासले पर ही बने रहते हैं। विपरीत आकर्षित हो जाते हैं और निकट आ जाते हैं। विपरीत ही आकर्षण का सूत्र है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता है! तत्व से जानने का अर्थ है, वन हू हैज एक्सपीरिएंस्ड; जिसने अनुभव से जाना, वही तत्व से जानता है । और जिसने अनुभव से नहीं जाना, वह केवल सिद्धांत से जानता है, तत्व से नहीं। तो सिद्धांत से तो कोई भी पढ़कर जान सकता है। लेकिन वह ज्ञान तत्व-ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान नालेज नहीं है, एक्वेनटेंस है। । बट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो विभाजन किए हैं। एक को कहा है। नालेज, ज्ञान; और एक को कहा है एक्वेनटेंस, परिचय। तो जो हम सिद्धांत से जानते हैं, वह परिचय मात्र है, मियर एक्वेनटेंस । वह ज्ञान नहीं है। जिसको रसेल ने ज्ञान कहा है, उसी को कृष्ण तत्व से जानना कहते हैं। ए थिंग इन इट्स एलिमेंट, उसकी जो गहरी से गहरी तात्विकता है, उसकी जो गहरी से गहरी बुनियाद है, उसमें ही जानना । अनुभव के अतिरिक्त बुनियाद में जानने का कोई उपाय नहीं है। जो व्यक्ति इन दोनों मार्गों को अनुभव से जानता है, वह मोहित नहीं होता। क्योंकि जो दोनों को जान लेता है, उसके लिए विपरीत का आकर्षण विलीन हो जाता है। इसे ऐसा समझें, जो व्यक्ति दक्षिणायण के मार्ग पर चलेगा, वह चलता रहे दक्षिणायण के मार्ग पर, लेकिन उसके चित्त में निरंतर ही आकर्षण उत्तरायण की तरफ बना रहेगा; विपरीत खींचता रहेगा। जो व्यक्ति उत्तरायण की तरफ चलेगा सीधा, बिना दक्षिणायण के अनुभव के, उस व्यक्ति को दक्षिणायण का मार्ग निरंतर ही आकर्षित करता रहेगा, बुलाता रहेगा, पुकारता रहेगा, बाधा बन रहेगा। और सदा मार्ग में ऐसी अड़चनें आ जाएंगी, जब वह आदमी कभी उत्तरायण की तरफ, कभी दक्षिणायण की तरफ डोलने लगेगा। और जो व्यक्ति विपरीत की तरफ डांवाडोल होता रहे, वह अग्रसर नहीं हो पाता है। 157 इन दोनों मार्गों को जो उनके तत्व में जान लेता है, वह फिर मोहित नहीं होता है। वह इन दोनों मार्गों में ही मोहित नहीं होता है, ऐसा नहीं, वह समस्त विपरीतता के चक्कर से मुक्त हो जाता है। संसार से मुक्त होने का गहनतम जो अर्थ है, वह है, मुक्त हो जाना संसार की विपरीतता के नियम से, दि ला आफ दि अपोजिट । वह जो विपरीत खींचता है... । इसलिए योगी स्त्री को छोड़कर इसलिए नहीं जाता कि वह स्त्री है। या योगी स्त्री के साथ रहकर भी स्त्री को इसलिए नहीं छोड़ देता है कि वह स्त्री है। या अगर योगिनी है, तो पुरुष को छोड़कर इसलिए नहीं जाती, या पुरुष के साथ रहकर भी पुरुष का आकर्षण इसलिए नहीं छोड़ देती कि वह पुरुष है, बल्कि इसलिए कि वह अपोजिट है, वह विपरीत है। | और विपरीत से मुक्त हुए बिना कोई भी व्यक्ति शांत नहीं हो | सकता। मोह से मुक्त हुए बिना, निर्मोह हुए बिना कोई भी व्यक्ति शांत नहीं हो सकता। क्योंकि वह दूसरा खींचता ही रहेगा। और जब आप एक तरफ होते हैं, तब दूसरा आपको खींचता है; जब आप दूसरी तरफ जाते हैं, तब जिससे आप हट गए हैं, वह आपको पुनः खींचने लगता है। पूरा जीवन इसी तरह घड़ी के पेंडुलम की तरह दो अतियों के बीच में डांवाडोल होता है। जिसे छोड़ देते हैं, वह फिर आकर्षक हो जाता है, फिर पुकारने लगता है, फिर बुलाने लगता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक दंपतियों को सलाह देते हैं कि अगर पत्नी से न बन रही हो ठीक, या पति से ठीक न बन रही हो, तो थोड़ी देर के लिए दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ प्रेम के अस्थायी संबंध निर्मित कर लेने चाहिए। बड़ी हैरानी की बात है। क्योंकि कोई स्त्री यह नहीं सोच सकती कि उसका पति, जब उससे नहीं बन रही है, अगर किसी और स्त्री
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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