________________
ज्ञान, भक्ति, कर्म
की गरीब हैं, और किसी की मकान की दीवालें धनी हैं, और किसी का मकान आकाश छूता है, और किसी का जमीन छू रहा है। बहुत - बहुत फासले हैं। झोपड़े हैं और महल हैं, वह भीतर छिपा जो आकाश है, अलग-अलग मालूम पड़ता है।
कौन मानने को तैयार होगा कि झोपड़े के भीतर भी वही आकाश है जो महल के भीतर है ? कौन मानने को तैयार होगा ?
मानने को तैयार नहीं होगा। कहेगा कि महल में जो आकाश है, वह बात ही और है । वह स्वर्णमंडित है, हीरे-जवाहरातों से सजा है। सुगंध से भरपूर है। उसकी शान और है, उसका विलास और है । झोपड़े का भी एक गरीब आकाश है, दीन है, दरिद्र है।
लेकिन आकाश भी कहीं भिन्न हो सकता है ? झोपड़ा होगा दीन-दरिद्र; महल होगा समृद्ध; लेकिन भीतर जो आकाश है, दोनों के भीतर जो रिक्त स्थान है, वह कैसे भिन्न हो सकता है? लेकिन झोपड़ा भिन्न दिखाई पड़ता है, महल भिन्न दिखाई पड़ता है।
अभिन्नता तब तक न दिखाई पड़ेगी, जब तक हम झोपड़े और महल को मिटाकर न देखें। झोपड़े को भी मिटा दें, महल भी मिटा दें; और फिर फर्क करने जाएं कि दोनों के भीतर जो छिपा आकाश था, अब उसमें कुछ भेद रहा? एक दीन, एक समृद्ध ! एक गरीब, एक अमीर ! एक स्वर्णमंडित, एक भिक्षापात्र से भरा !
अब उन आकाशों में कोई भी भेद न रह जाएगा।
ज्ञानी की खोज उसकी खोज है, जो सभी रूपों के भीतर छिपा है, सभी आंकारों के भीतर छिपा है । और ज्ञानी जब तक उस निराकार को नहीं खोज लेता, जो सभी आकारों में रमा है, तब तक उसकी तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी अक्सर, साकार की जो पूजा करते हैं, उनके खिलाफ मालूम पड़ेगा। उसके खिलाफ होने का कारण है, उसकी खोज । उसकी खोज निराकार की है। इसलिए जब आपको देखेगा किसी आकार की पूजा कर रहे हैं, तो कहेगा, क्या पागलपन में पड़े हो ! उसे खोजो, जो निराकार है!
लेकिन उसे पता नहीं कि कोई और आकार से भी उसकी यात्रा पर जा सकता है। उसकी हम पीछे बात करेंगे।
यह जो निराकार, एकत्व, सब में ही वासुदेव को देख लेने वाला है, समझ लेना चाहिए कि क्या यह मेरा मार्ग है? खोज लेना चाहिए, तालमेल बिठाना चाहिए, क्या ज्ञान मेरी खोज है? क्या मैं उस तरह का व्यक्ति हूं जो सब आकारों को गिराकर निराकार की तलाश में लगा हूं? क्या उससे मेरी तृप्ति होगी? क्या वही मेरी आत्मा की अभीप्सा है? वही मेरी प्यास है? अगर नहीं है, तो उस उपद्रव में
कभी भी पड़ना नहीं चाहिए। अगर है, तो शेष सब को भूलकर उसमें पूरी तरह लीन हो जाना चाहिए। यह स्वधर्म की खोज है।
कृष्ण कहते हैं, दूसरे पृथकत्व भाव से, द्वैत भाव से, अर्थात स्वामी सेवक भाव से मेरी उपासना करते हैं।
249
दूसरा वर्ग है भक्त का । भक्त की खोज बिलकुल भिन्न है । खोज का अंत बिलकुल एक है, खोज का मार्ग बिलकुल भिन्न है । भक्त कहता है, जानने से कोई प्रयोजन नहीं । जानने में भक्त को बिलकुल रूखा-सूखापन मालूम पड़ता है। है भी शब्द रूखा । ज्ञान बड़ा रूखा शब्द है। उसमें कहीं कोई रस-धार नहीं बहती । ज्ञान बिलकुल मस्तिष्क की बात मालूम पड़ती है, उसमें हृदय की धड़कन नहीं सुनाई पड़ती। ज्ञान एक गणित का फार्मूला मालूम पड़ता है, किसी फूल का खिलना नहीं।
भक्त कहता है, जानने से क्या होगा? प्रेम ! जानना कुछ मतलब का नहीं है। वह कहता है, जब तक मैं उसे प्रेम न कर पाऊं, तब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं है। नोइंग नहीं, लविंग जानना नहीं, उसके प्रेम में डूब जाना ।
भक्त कहता है, जानना भी बाहर ही बाहर है; कितने ही भीतर चले जाओ, जानना फिर भी बाहर है। और भक्त ठीक कहता है । अपनी जगह से बिलकुल ठीक कहता है। वह कहता है, जब तक प्रेम में न डूब जाओ, तब तक असली जानना कहां! क्योंकि भक्त कहता है कि प्रेम ही जानने का मार्ग है।
अब इसे ऐसा समझें, एक डाक्टर है, वह एक मरीज के पास खड़ा हुआ है एक घर में मरीज मरणासन्न है। मर रहा है। डाक्टर उसकी नाड़ी अपने हाथ में लिए हुए खड़ा है, तत्पर । नाड़ी की एक-एक धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के हृदय की | धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के खून की चाल उसकी समझ में आ रही है। मरीज की अवस्था उसके पूरे ज्ञान में है।
पास में ही उस मरीज की पत्नी छाती पीटकर रो रही है। हाथ उसका नाड़ी पर नहीं है मरीज की । हृदय की धड़कन का उसे कुछ पता नहीं है। मरीज की क्या अवस्था है, उसका उसे कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन उसके आंसू बहे जा रहे हैं। उसके प्राण संकट में हैं। वह मरीज नहीं मर रहा है, वह खुद मर रही है। इस मरीज के साथ उसका मरना घटित हो रहा है।
इन दोनों के जानने में बड़ा फर्क है। डाक्टर का जानना कितना ही गहरा हो, बहुत गहरा नहीं है। पत्नी का जानना बिलकुल भी नहीं | है। इसे कुछ भी पता नहीं है कि घड़ीभर बाद यह आदमी मर जाएगा