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श्रद्धा का अंकुरण *
अब अर्जुन का हृदय कृष्ण को सामने मालूम पड़ रहा है। अब वे देख पा रहे हैं कि अब उसकी दोष- दृष्टि खो गई है। और जब दोष -दृष्टि खोती है, तो आंख से, चेहरे से, एक-एक भाव-भंगिमा से, एक - एक गेस्वर से वह प्रकट होने लगती है।
जब आपके भीतर संदेह होता है, तो आपकी आंख भी संदेह से भर जाती है, आपके होंठ भी, आपकी भाव-भंगिमा भी। आपका प्राण ही संदेह से नहीं भरता, आपका रोआं- रोआं शरीर का संदेह से भर जाता है।
किसी दिन अगर विज्ञान समर्थ हो सका, तो संदेह से भरे हुए आदमी के खून में और श्रद्धा से भरे हुए आदमी के खून में अगर रासायनिक फर्क खोज ले, तो कोई आश्चर्य न होगा। अगर केमिकल फर्क मिल जाए, तो कोई आश्चर्य न होगा। क्योंकि विज्ञान यह तो अनुभव करने लगा है कि जब एक आदमी प्रेम से भरता है, तो उसके खून की केमिकल, उसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। और जब एक आदमी क्रोध से भरता है, तब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। उसके खून में जहर फैल जाता है। जब एक आदमी उदास होता है, तब उसके खून का रासायनिक रूप और होता है; और जब एक आदमी प्रफुल्लित होता है, आशा से, उमंग से भरा होता है, जब उसकी हृदय की धड़कनें आशा के गीत गाती होती हैं, तब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था बदल जाती है।
शरीर का कण-कण भी बदल जाता है, जब भीतर का मन बदलता है; क्योंकि शरीर मन की छाया मात्र है। क्योंकि शरीर जो भी है, वह मन का ही प्रतिफलन है।
कृष्ण कहते हैं कि अब यह संभव है अर्जुन, तू दोष देखने वाली दृष्टि से मुक्त हुआ, रिक्त हुआ, खाली हुआ, तो अब मैं तुझसे रहस्य की बात कह सकूंगा ।
दोष की दृष्टि क्या है? यह नकारात्मक देखने का ढंग क्या है ? अगर मैं आपसे कहूं कि ईश्वर है, तो जो दोष की दृष्टि है, वह पूछेगी, कहां है? इसलिए नहीं कि उसे खोजना है; बल्कि सिर्फ इसलिए कि जो कहा गया है, वह सही नहीं है। भक्तों ने भी पूछा है कि कहां है? लेकिन इसलिए नहीं कि जो कहा गया है, वह गलत है; बल्कि इसलिए कि उसे कहां खोजें? कहां पाएं उसे? किस तरफ देखें? किस मार्ग पर चलें ?
भक्त ने जब भी पूछा है, उसने पूछा है कि समझा, है । कैसे उसे पाएं? उसने जब भी प्रश्न उठाए हैं, तो वे प्रश्न हैं, कैसे? उनका
| रूप कुछ भी रहा हो। उसने यह पूछा है कि ठीक है; वह है । कहां है? कैसे उसे खोजें? क्या है मार्ग ? क्या है विधि ? कहां तक, कैसे मैं अपने को रूपांतरित करूं कि वह मुझे मिल जाए? उसने भी प्रश्न पूछे हैं, लेकिन उसके प्रश्न किसी अनुभूति की पिपासा से उठे हैं।
और जब एक नकारात्मक दृष्टि पूछती है, तब वह यह पूछती है कि गलत है यह बात । कहां है? प्रत्यक्ष मेरे सामने लाकर रखो। यहां मेरे सामने हो, तो मैं मानूं। वह असल में यह कह रहा है कि अगर परमात्मा एक पदार्थ हो, तो मैं स्वीकार करूं । परमात्मा अगर एक वस्तु हो, तो मैं स्वीकार करूं । प्रयोगशाला में अगर परीक्षण हो सके, तो मैं स्वीकार करूं। मैं उसे डिसेक्ट कर सकूं, काट-पीट सकूं। जैसे कि चिकित्साशास्त्र का विद्यार्थी अपनी टेबल पर रखकर मेंढक को काट-पीट रहा है, जांच-पड़ताल कर रहा है, आदमी के अस्थिपंजर में खोज कर रहा है। ऐसा अगर तुम्हारा ईश्वर कहीं हो, तो लाओ, उसे रखो प्रयोगशाला की टेबल पर, सर्जरी की टेबल पर, हम उसे काटें- पीटें, उसे खोजें, क्या है उसके भीतर ? कुछ है भी या धोखा है !
नकारात्मक दृष्टि विश्लेषण मांगती है; एनालिसिस, तोड़ो, खंड-खंड करो, तभी हम स्वीकार करेंगे कि है। अगर हमने तोड़कर भी पाया कि है, तो ही हम मानेंगे कि है।
नकारात्मक दृष्टि खंड-खंड करने में भरोसा रखती है। अगर हम एक फूल दें, तो नकारात्मक दृष्टि तोड़कर सौंदर्य की खोज करेगी। | पंखुड़ियों को काट डालेगी। एक-एक रस को पृथक कर लेगी। | एक-एक खनिज को तोड़ डालेगी । और तब अलग-अलग शीशियों में बंद करके फूल के सौंदर्य की खोज करेगी।
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स्वभावतः, फूल का सौंदर्य नहीं मिलेगा; क्योंकि फूल का सौंदर्य फूल की पूर्णता में है, उसकी समग्रता में है, उसकी टोटेलिटी में है। तोड़ते ही खो जाता है। फूल का सौंदर्य उसके खंडों में नहीं, उसकी अखंडता में है। और जो भी अखंडता में है, नकारात्मक दृष्टि उसे कभी भी नहीं पा पाएगी।
परमात्मा परिपूर्ण अखंडता है। अगर फूल अपनी अखंडता में है, तो फूल की समग्रता । परमात्मा का अर्थ है, सारे अस्तित्व की समग्रता । पूरा अस्तित्व अगर एक फूल है, तो परमात्मा उसकी समग्रता का सौंदर्य है।
नकार की दृष्टि इंद्रियों पर भरोसा करती है। जो इंद्रियों को प्रतीत हो, वही सत्य है; जिसे इंद्रियां इनकार कर दें, वह सत्य नहीं है। | लेकिन इस दृष्टि को भी धीरे-धीरे जैसे-जैसे गहरे उतरने का मौका