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________________ * गीता दर्शन भाग-4 * आ रहे हैं। वे सब भिन्न हो जाते हैं। जो अव्यक्त से भी अव्यक्त है। लेकिन वह तो बहुत दूर, हमें अपने इस जगत की भिन्नता हमारे अव्यक्त मन की भिन्नता है। फिर वह | शरीर का ही पूरा पता नहीं है, जो व्यक्त है। वह तो बहुत दूर, जो रोज-रोज प्रकट होनी शुरू होगी। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, | | व्यक्त है, मैनिफेस्ट है, हमें उस शरीर का भी पूरा पता नहीं है। मन शरीर में फैलने लगता है और प्रकट होने लगता है। फिर जो __ आपको अपने शरीर का भी पूरा पता नहीं है, अगर मैं ऐसा कहूं, फूल लगते हैं या कांटे लगते हैं, जो कुछ भी लगता है, वह मन से | तो आप कहेंगे, कैसी अजीब बात कर रहे हैं। नहीं, आपको आता है और फैलता चला जाता है। लेकिन इन दोनों के | बिलकुल पता नहीं है। इस शरीर में भी इतने राज छिपे हैं, उनका पार–व्यक्त शरीर और अव्यक्त मन के पार अव्यक्त से भी हमें कोई पता नहीं। इन्हीं राजों की खोज योग और तंत्र और समस्त परे, अति परे आत्मा है। धर्म करते रहे हैं—इन्हीं राजों की खोज। इस शरीर में कुंडलिनी यह व्यक्ति के अणु को हम समझ लें, तो ठीक ऐसा ही विराट | | जैसी शक्ति छिपी है, लेकिन उसका हमें कभी कोई पता नहीं। अस्तित्व का अणु, महाअणु भी है। व्यक्ति को परमाणु कहें, | | उसकी झलक भी नहीं मिली। वह इसी शरीर में छिपी है। व्यक्त का अस्तित्व को महाअणु कहें। यह क्षुद्रतम है, वह विराटतम है, हिस्सा है, अव्यक्त का नहीं; बिलकुल व्यक्त है। लेकिन हम कभी लेकिन इन दोनों की व्यवस्था बिलकुल एक जैसी है। इसलिए पुराने | उस पर पहुंचे ही नहीं। शास्त्र कहते हैं, जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है, फैला हुआ है सिर्फ । जैसे हमारे ही घर में खजाना गड़ा हो और हमें कुछ पता न हो विराट बड़ा रूप होकर। | और हम दूसरों के घरों के सामने भीख मांग रहे हों। और हमारे घर कृष्ण ने कहा कि अगर तुझे सच में ही विनाश की संभावनाओं | में खजाना गड़ा हो और हम भीख मांगते-मांगते मर जाएं। लेकिन के पार हो जाना है, तो तू उस ब्रह्म की खोज कर, जो न कभी पैदा गड़े होने से खजाना खजाना नहीं होता। जब तक वह प्रकट न हो होता है और न कभी मरता है; जो न कभी प्रकट होता है और न | जाए, तब तक खजाने का कोई प्रयोजन नहीं है। कभी अप्रकट होता है; जो न बनता है, न बिगड़ता है; जो न हमारे शरीर में अदभुत शक्तियां छिपी हैं। उन शक्तियों का हमें संगृहीत होता है, न बिखरता है; जो बस है, जस्ट इज़। जो सिर्फ | | पता नहीं है। जिस व्यक्ति को इस विराट यात्रा पर निकलना है, है; जिसकी सुबह नहीं, सांझ नहीं; आना नहीं, जाना नहीं; जो बस | | पहले उसे अपने शरीर के भीतर छिपी हुई शक्तियों से परिचित होना है, उसकी तू खोज कर। पड़ता है। क्योंकि उन छिपी हुई शक्तियों के सहारे वह अपनी मन उसकी खोज कहां से हो सकती है? एक खोज तो यह है कि | | की छिपी हुई शक्तियों को खोजने में समर्थ हो जाता है। और मन हम गीता पढ़ लें और हमें पता चल जाए। काश, इतना सरल होता, | | में तो बहुत कुछ छिपा है, जिसका हमें बिलकुल भी पता नहीं। मन तो गीता इतने लोग पढ़ चुके हैं कि इस जगत में ज्ञानी ज्यादा होते की हम सतह पर ही जीते हैं। उसकी अनंत गहराइयां हैं, उनका हमें और अज्ञानी कम। अगर यह इतना सरल होता मामला कि हम पढ़ | कोई भी पता नहीं है। लें सिद्धांत को, समझ लें बिलकुल और इंटलेक्चुअल | आपका मन आपके समस्त जन्मों की स्मृति अपने साथ लिए अंडरस्टैंडिंग, बौद्धिक समझ बिलकुल पूरी हो जाए, तो भी कुछ | हुए अभी मौजूद है, यहीं। आपने जो कुछ भी किया है अनंत-अनंत नहीं होता। कभी-कभी समझ, कोरी समझ, बड़ी नासमझी की होती काल में, उस सबकी स्मृति एनग्रेव्ड है; आपके भीतर मन के कोने है। सब समझ लेते हैं शब्दों को, सिद्धांतों को, फिर भी हाथ के में सब दबी पड़ी है। उसे आज भी खोला जा सकता है। और पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता है। वह तो तभी पड़ेगा, जब इस समझ आपको जानना जरूरी नहीं है, कि आप किसी और से पूछने जाएं का अनुभव हो। | कि पुनर्जन्म होता है या नहीं, आपके भीतर ही आप उतर सकते हैं और इस विराट में उतरना तो बहुत कठिन है। इस विराट में उन सीढ़ियों को, जहां से आपको पिछले जन्मों की याददाश्त आनी उतरने वाले लोग हैं। और जब कोई इस विराट में उतर जाता है, शुरू हो जाए; जहां से आप लौट पड़ें यात्रा पर और टाइम ट्रैक में तब उसकी हैसियत कृष्ण, बुद्ध और महावीर जैसी हो जाती है। | वापस, समय की धारा में उलटे लौट जाएं और पीछे के सारे दृश्य लेकिन विराट में उतरना तो अति कठिन है, पहले तो अपने परमाणु | | फिर से देखें। वे सब के सब मौजूद हैं। वे सब के सब मौजूद हैं। में ही उतर जाएं, वही काफी है। अपने ही भीतर जरा उसे खोज लें, कोई भी स्मृति कभी खोती नहीं है मन में, लेकिन उसका हमें कोई 102
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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