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________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल * तो जिस अदृश्य में दृश्य छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं | | के अध्ययन से यह तय किया जा सकता है कि वह किस भांति सकता। हमें दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें अगला जन्म लेगा, कैसा उसका व्यक्तित्व होगा, क्या उसके कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह | व्यक्तित्व का ढंग होगा। यह भी जाना जा सकता है कि वह सुंदर बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस होगा, कुरूप होगा, बहुत अति वासना से ग्रस्त होगा, कि कम अव्यक्त के भी पार, बियांड दिस अनमैनिफेस्ट, वह ब्रह्म है। वह | | वासना से ग्रस्त होगा—यह सब जाना जा सकता है। मरते क्षण में अव्यक्त से भी अति परे। बियांड दि बियांड, अव्यक्त से भी अति | | मन सिकुड़कर बीज बन जाता है। उस बीज में बिल्ट-इन, भीतर परे। उसके भी पार, पार के भी पार, अतिक्रमण का भी अतिक्रमण | छिप जाती है पूरी प्रक्रिया नए शरीर को ग्रहण करने की। करता हुआ वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त है। जो सनातन इसलिए इस जगत में कुरूप अकारण ही कुरूप पैदा नहीं होते, अव्यक्त है, इटरनली अनमैनिफेस्ट। यह तो टेंपररी अनमैनिफेस्ट | और न सुंदर अकारण सुंदर पैदा होते हैं। इस जगत में हम जो कुछ है, अस्थायी रूप से अव्यक्त है, फिर व्यक्त हो जाता है, फिर | भी लेकर पैदा होते हैं, वह हमारे मन के साथ लाया हुआ बीज है। अव्यक्त हो जाता है। | उस बीज के अनुसार ही हम निर्मित होते हैं। उस बीज के अनुसार लेकिन एक ऐसा अव्यक्त भाव भी है, एक ऐसा अव्यक्त | | ही ब्लूप्रिंट, नक्शा हमारे मन में छिपा है। वह हमारे शरीर को अस्तित्व भी है, एक ऐसा अव्यक्त होना भी है, जो कभी व्यक्त न | निर्मित करता है, बनाता है। हुआ है, न होगा, न हो सकता है। वह अव्यक्त के भी परे है। वही | यह जो शरीर आज बनकर खड़ा होता है, योग की गहनता को ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा, वही मोक्ष-या जो भी नाम हम | | जानने वाले निरंतर जानते रहे हैं कि मरते क्षण में आदमी के बीज देना चाहें, दें-वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर | | को देखा जा सकता है, कि अब यह कहां यात्रा करेगा, कैसे यात्रा भी नष्ट नहीं होता है। क्यों? क्योंकि उसका कभी कोई सृजन नहीं | | करेगा, क्या इसका फल होगा। हुआ, वह नष्ट नहीं हो सकता। उसकी कभी सुबह नहीं हुई, उसकी | । अभी वैज्ञानिक भी कहते हैं उन्हें मरने का तो पता नहीं पीछे सांझ नहीं हो सकती। उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, तो उसकी कभी का-वे कहते हैं, जब मां के पेट में पहला अणु जन्मता है, तब प्रलय नहीं हो सकती है। उसका अध्ययन करके हम बता सकते हैं बहुत-सी बातें, कि इस अगर तू जानना ही चाहता है अमृत को और अगर तू जानना ही आदमी की आंखों का रंग क्या होगा, इसकी ऊंचाई क्या होगी, चाहता है कि कैसे मैं लोगों की मृत्यु से बचूं और कैसे मैं मृत्यु से इसके बाल कैसे होंगे, यह कितनी उम्र का हो सकेगा, इसकी बुद्धि बचूं, विनाश से बचूं, तो अर्जुन से कृष्ण ने कहा, तू उसे जान ले, | कैसी होगी, इसका स्वास्थ्य कैसा होगा। बहुत कुछ हम मां के पेट जो अव्यक्त के भी पार है। में, जन्म का जो पहला क्षण है, मुहूर्त का, जब पहला अंडा निर्मित हमारे भीतर भी तीन पर्ते हैं। एक व्यक्त, जो हमारा शरीर है। | होता है, तब उस अंडे के अध्ययन से बहुत कुछ कह सकते हैं कि एक अव्यक्त, जो हमारा मन है। और एक अव्यक्त के भी पार | | क्या-क्या होगा। अव्यक्त, जो हमारी आत्मा है। मन में कुछ भी हो, तो आज नहीं | ___ यह दूसरे छोर से बात को पकड़ा जाना है। लेकिन आज जो मां कल व्यक्त हो जाता है। शरीर तो व्यक्त है ही। उसमें कुछ अव्यक्त | | के पेट में पहला अणु बना है, वह सिर्फ मां और पिता के देह-कणों नहीं है, वह व्यक्त है ही। लेकिन मन में जो कुछ हो, वह आज नहीं से मिलकर नहीं बन गया है, उसमें एक नया तत्व भी प्रविष्ट हुआ कल व्यक्त हो जाता है, बीज की तरह। और मन के ही अव्यक्त | | है, वह अव्यक्त मन है। मां का अणु भी व्यक्त है, पिता का अणु से शरीर का व्यक्त पैदा होता है। इसलिए जब हम मरते हैं, तो शरीर भी व्यक्त है। वे तो व्यक्त हैं, उनसे तो देह बनेगी; लेकिन उन दोनों तो छूट जाता है, लेकिन मन नहीं छूटता। मन को हम साथ ले जाते के बीच एक तीसरा तत्व भी प्रवेश कर गया है। हैं, वह बीज है, कैप्सूल है, बंद है, हमारे साथ चला जाता है। फिर | | इसीलिए एक ही मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं और सभी बच्चे नए शरीर को बना लेता है। | भिन्न होते हैं। उसका और कोई कारण नहीं है। क्योंकि उनका व्यक्त यह आप जानकर हैरान होंगे कि आप अगर मरते हुए आदमी के | तो सबका एक है, लेकिन अव्यक्त जो मन प्रवेश करता है, वह मन को पहचानने की क्षमता रखते हों, तो मरते क्षण में उसके मन | | | सबका अलग-अलग है। वे सब अपनी-अपनी यात्राएं लेकर साथ 101
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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