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गीता दर्शन भाग-4*
भी क्रिया, परमात्मा के स्मरण को सतत बनाए रखे, तो उपासना है।। | याद नहीं आता। जब से बचपन से मैं यह कर रहा हूं। मेरे पिता भी
और कृष्ण कहते हैं फिर वह कुछ भी हो, यज्ञ हो, कि श्रोत-कर्म ऐसा ही करते थे। उन्हीं के साथ-साथ मैं भी सीख गया। कुछ हो, कि अग्नि हो, कि हवनरूप क्रिया हो, कि मंत्र हो, कि तंत्र हो, | अनुभव हुआ जिंदगी में ? वे कहते हैं, कुछ अनुभव नहीं हुआ। कुछ भी हो, मैं तुझे भीतर मिलूंगा। कहीं से भी तू आ, तू मेरे पास पचास साल के हो गए हैं। पता नहीं चालीस साल से, पैंतालीस पहुंच जाएगा।
| साल से, कब से कर रहे हैं! कोई अनुभव नहीं हुआ, और यह पर एक ही बात खयाल रहे, उपासना यांत्रिक बन गई कि मिट | पैंतालीस साल मंदिरों के सामने सिर झुकाने में गए। तो ये सिज्दा जाती है। और हमारी हालतें ऐसी हैं कि यांत्रिक बनने का सवाल | बेकार हो गया। यह प्रार्थना फिजूल है। यह यांत्रिक हो गई। अब ही नहीं उठता, हम पहले से ही उसे यांत्रिक मानकर चलते हैं। बाप | यह एक मजबूरी है। एक रोबोट का हिस्सा हो गई है कि करनी अपने बेटे को मंदिर में ले जाता है और कहता है. पजा करो। बेटे पडती है। करते रहेंगे और मर जाएंगे। को स्मरण कल भी नहीं दिलाया जाता सिर्फ पजा करवाई जाती है।। उपासना ऐसे नहीं होगी। उपासना का अर्थ है, स्मरणपूर्वक, बेटे को अभी यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। अभी उसे यह भी पता माइंडफुली; ईश्वर को स्मरण करते हुए किया गया कोई भी कृत्य नहीं कि यह क्या हो रहा है! बाप सिर झुकाता है, बड़े-बूढ़े सिर | उपासना है। गड्ढा खोदते हों जमीन में, ईश्वर को स्मरणपूर्वक झुकाते हैं, वह भी सिर झुकाता है। यह सिर झुकाना रोबोट हो | | खोदते हों; मिट्टी न निकलती हो, ईश्वर ही निकलता हो, तो प्रार्थना जाएगा। फिर यह जिंदगीभर झुकाता रहेगा।
हो गई, उपासना हो गई। उस गड्ढे में भी वही मिलेगा। किसी मरीज ऐसे मैं लोगों को देखता हूं। सड़कों पर से जा रहे हैं, मंदिर के पैर दाबते हों, मरीज मिट जाए, ईश्वर ही रह जाए। ईश्वर के ही देखकर जल्दी से उनका सिर झुक जाता है। रोबोट! उनसे अगर पैर हाथ में रह जाएं। स्मरणपूर्वक ईश्वर के ही पैर दबने लगें। उसी पूछो कि क्या किया, तो वे कहेंगे, कुछ किया नहीं। | मरीज में ईश्वर मिल जाएगा। कहां, यह सवाल नहीं है; कैसे!
एक मित्र को मैं जानता हूं। गांव में कोई भी मंदिर पड़े, तो वे तो कृष्ण कहते हैं, सब जगह मैं हूं, सबके भीतर मैं छिपा हूं। उसको नमस्कार करते हैं। मेरे साथ घूमने जाते थे सुबह। तो मैंने तुम कहीं से भी आ जाओ, सब रास्ते मेरे पास ले आते हैं। सिर्फ उनसे कहा, एक दफा ठीक से एक मंदिर के सामने घड़ी दो घड़ी | | मुझे स्मरण रखना, इतनी ही शर्त है। बैठकर यह कर लो, तो ज्यादा बेहतर है बजाय फुटकर दिनभर | आज इतना ही। करने के। इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ता, जहां से भी निकले, | लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में डूबें। पांच मिनट जल्दी से सिर झुकाया, आगे बढ़ गए!
| उपासना के बना लें। कोई उठेगा नहीं, बैठे रहें। और जब तक मेरी बात उनकी समझ में पड़ी। एक दिन उन्होंने किया। फिर मेरे | कीर्तन खतम न हो, तब तक उठें न। एक पांच मिनट शांति से साथ घूमने गए। मंदिर पड़ा, तो उनको बड़ी बेचैनी हुई। उनको अपनी जगह बैठे रहें। अपने हाथ-पैर रोकने पड़े। दस कदम मेरे साथ आगे बढ़े और मुझसे बोले, माफ करिए! मैंने कहा, क्या हुआ? उन्होंने कहा, मुझे वापस जाकर नमस्कार करनी पड़ेगी। क्या मामला है? मझे भय लग रहा है। जिंदगी में ऐसा मैंने कभी नहीं किया। इस मंदिर को तो मैं कभी चूकता ही नहीं। तो मुझे भय लग रहा है कि पता नहीं इससे कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहा, जाओ!
अब यह ठीक वैसी ही आदत हो गई, जैसे किसी को सिगरेट पीने की हो जाए। न पीए, तो मुश्किल मालूम पड़ती है। अब यह मंदिर को हाथ जोड़ना एक आदत का हिस्सा हो गया। अब यह जबरदस्ती हाथ को रोकना पड़ता है। मैंने उनसे पूछा, कितने साल से करते हो? वह कहते हैं, मुझे