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*गीता दर्शन भाग-44
होता। कितने ही दूर हो जाए, कितने ही दूर और कितने ही गहन ने मंसूर को सूली दी। सूली देने का कारण सिर्फ इतना था कि मंसूर अपने अंधेरे में खो जाए, संसार से उसके संबंध विसर्जित नहीं होते | | कह रहा था, अनलहक। मैं ब्रह्म हूं। आई एम दि डिवाइन। अहं और वह कभी भी वापस लौट आता है। जब तक अहंकार शेष है, | | ब्रह्मास्मि का अनुवाद है, अनलहक, मैं ब्रह्म हूं। जब तक वापसी शेष है। तब तक आदमी वापस लौट आएगा। बड़ा मुश्किल है तय करना कि यह फकीर मंसूर, शुक्ल पक्ष की ___ एक-एक दिन, जैसे कृष्ण पक्ष बढ़ता है, अमावस करीब आती। | पूर्णिमा को पहुंचकर कह रहा है या अमावस की अंधेरी रात में है, वैसे-वैसे जगत खोता चला जाता है। और अमावस के दिन, पहुंचकर कह रहा है। कौन तय करे? कैसे तय करे? जो मंसूर को अमावस की रात, जैसे पूर्णिमा की रात्रि अहंकार शून्य हो जाता है | प्रेम करते हैं, वे कहते हैं कि यह पूर्णिमा की घोषणा है। और जो और परमात्मा पूर्ण हो जाता है, ठीक वैसे ही अमावस की रात्रि | | मंसूर के विरोधी थे, उन्होंने कहा, यह अमावस की घोषणा है। अहंकार पूर्ण हो जाता है और पर बिलकुल शून्य हो जाता है। और अमावस की घोषणा मानकर मुसलमानों ने मंसूर की हत्या कर दी। पर के साथ परमात्मा भी शून्य हो जाता है, लेकिन अहंकार पूर्ण हो लेकिन वह घोषणा अमावस की न थी। और जिन्होंने हत्या की, जाता है।
उनसे भूल हो गई। क्योंकि अगर वह अमावस की घोषणा होती, मजे की बात है और शब्द इसीलिए धोखा दे सकते हैं- तो मरते वक्त पता चल जाता। क्योंकि मरते वक्त सब कुछ पता पूर्णिमा की रात को उपलब्ध हुआ व्यक्ति भी कह सकता है, अहं चल जाता है। अंतिम क्षण में, काल-क्षण में मंसूर ने जाहिर कर ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका अर्थ होता है कि मैं अब नहीं | | दिया कि जिन्होंने सूली दी, वे भूल में थे। ह, ब्रह्म ही है। अमावस की स्थिति में पहंचा हआ व्यक्ति भी कह जब मंसर के हाथ काटे जा रहे थे. तब भी वह हंस रहा था। जब सकता है, अहं ब्रह्मास्मि। लेकिन उसका मतलब बिलकुल भिन्न | उसके पैर काटे जा रहे थे, तब भी वह हंस रहा था। जब उसकी होता है। वह भी कहता है, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका मतलब यह आंखें फोड़ी जा रही थीं, तब भी वह परमात्मा से दुआ मांग रहा था होता है, अब और कोई ब्रह्म नहीं, मैं ही ब्रह्म हूं!
उन सबके लिए, जो उसकी हत्या कर रहे थे। जब उसके हाथ काटे पूर्णिमा की रात्रि को पहुंचा हुआ व्यक्ति कहता है, अहं | गए और उसके हाथ से खून गिरने लगा, तो उसने दूसरे हाथ से ब्रह्मास्मि! क्योंकि वह कहता है, जो कुछ भी है, सभी ब्रह्म है। मैं | खून को हाथ में लेकर वजू की, जैसा कि मुसलमान नमाज के पहले भी ब्रह्म है, क्योंकि सभी कुछ ब्रह्म है। उसके इस अहं ब्रह्मास्मि में, | करते हैं। उसके इस अहं में, उसके इस मैं में, मैं बिलकुल नहीं है और सब एक आदमी ने चिल्लाकर पूछा कि मंसूर, यह तुम क्या कर रहे समा गया है। कहें, उसका यह अहं पूर्णरूपेण अहं-शून्य है, | हो? वजू पानी से की जाती है! ईगोलेस ईगो। शब्द भर मैं है, लेकिन उसमें मैं-पन जरा भी नहीं | मंसूर ने कहा, पानी की वजू भी कोई वजू है! प्रार्थना करने जिन्हें है। क्योंकि वह पूरे ब्रह्म के साथ अपने को एक अनुभव करता है। जाना है, उन्हें अपने खून से ही अपने को शुद्ध करना पड़ता है। और
जैसे बूंद सागर में गिर जाए और कहे कि मैं सागर हूं। लेकिन तुमने मुझे मौका दिया, तुम्हारा मैं अनुगृहीत हूं, शुक्रगुजार हूं कि गिरते ही बूंद तो खो जाती है। और अब मैं सागर हूं, इसका मतलब तुमने मुझे खून से, अपने ही खून से वजू करने की सुविधा जुटा दी। ही यह होता है कि अब सागर ही है, और मैं नहीं हूं। एक ही अर्थ और मरते वक्त जब सारे लोगों ने उससे चिल्लाकर पूछा कि होता है।
मंसूर, तुम नाराज भी नहीं हो, और तुम्हारी आंखें अभी भी प्रेम से अमावस की रात को पहंचा हआ व्यक्ति भी यही कह सकता भरी हैं, और तम्हारे होंठों से अभी भी प्रेम की वर्षा हो रही है। बात है, अहं ब्रह्मास्मि! जैसे बूंद सागर को बिलकुल भूल जाए और क्या है? सागर का उसे पता ही न रहे और तब अकड़कर बूंद कह सके कि | तो मंसूर ने कहा, ताकि तुम जान सको कि तुमने जो किया, वह मैं ही सागर है, क्योंकि मुझसे बड़ा और कौन है! तब मैं ही सब | भूल भरा था; और तुमने जिस आदमी को मारा, वह आदमी वही कुछ रह जाता है और सब पर आरोपित हो जाता है।
नहीं था, जैसा तुमने उसे समझा था। .. अहं ब्रह्मास्मि की दक्षिणायण की भी अनुभूति है, उत्तरायण की । ईसा के साथ भी वही भूल हुई। जब ईसा ने कहा कि मैं ईश्वर भी। इसलिए बहुत बार भूल भी हो जाती है, जैसे कि मुसलमानों का पुत्र हूं, तो उनके विरोधियों ने समझा कि यह अमावस की रात
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