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गीता दर्शन भाग-4*
hi और ये साधनाएं बड़ी उलटी हैं।
संकल्प का अर्थ ही है, स्वयं को, मैं को साधना । समर्पण का अर्थ है, स्वयं को, मैं को विसर्जित करना, खोना । दोनों की अलग-अलग साधनाएं हैं। हठयोग संकल्प की साधना है, राजयोग समर्पण की साधना है।
और जगत में दो ही तरह के योग हैं। उन्हें नाम कुछ भी दे दें। एक संकल्प के योग हैं, जिनमें अपने संकल्प को मजबूत करना है। इतना मजबूत करना है कि कोई जगत की ताकत मेरे संकल्प को न तोड़ पाए। तब मैं एक किले की दीवाल बनाकर उसके भीतर छिप जाऊंगा। फिर मैं सुरक्षित हूं।
और एक साधना है समर्पण की, कि अपने सब द्वार- दरवाजे खुले छोड़ देने हैं, कि कमजोर से कमजोर ताकत भी आए, कमजोर से कमजोर हवा का झोंका भी आए, तो भीतर चला आए, कोई बाधा न हो। मुझे मिटाने के लिए कोई ताकत आए, तो उसे जरा भी अड़चन न हो। मुझे मार डालने को कोई शक्ति निकले, तो मैं उसे द्वार पर ही स्वागत करता मिलूं। उसे दरवाजा खोलने की भी असुविधा न पड़े। समर्पण का अर्थ है, टु बी वलनरेबल, सब तरह से खुले हो जाना, जो हो उसके लिए राजी हो जाना।
ये दो साधनाएं हैं। एक साधना उस जगह पहुंचा देती है, जहां से कोई लौटना नहीं। दूसरी साधना भी कहीं पहुंचाती है, लेकिन वहां से लौटना है।
कृष्ण कहते हैं, इस दूसरे मार्ग से मरकर गया हुआ योगी-योगी कहते हैं उसे भी; वह भी संकल्प का योग साध रहा है— स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है। लेकिन एक बात और कही है, जो थोड़ी दुविधा में डालेगी, और वह यह है, धूम है, रात्रि है तथा कृष्ण पक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं। उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने कर्मों को भोगकर पीछे आता है।
यह चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, क्योंकि इस अंधेरे के रास्ते पर चंद्रमा की ज्योति कहां ? इस दक्षिणायण के मार्ग पर अमावस मिलेगी। यहां चंद्रमा की ज्योति कहां? यहां चंद्रमा कहां? इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, यह थोड़ा दुरूह है, लेकिन समझेंगे तो खयाल में आ जाएगा।
जैसा मैंने कहा कि आकाश में चांद हो, तो झील में उसका प्रतिबिंब बन जाता है। जब कोई व्यक्ति अंधकार की झील हो जाता
है, जस्ट ए डार्कनेस, गहन अंधकार की झील हो जाता है, तो अंधकार इतना सघन हो जाता है कि झील बन जाता है। तो भी, | उसकी ही ऊर्ध्व यात्रा का जो अंतिम बिंदु है, उसकी झलक इस गहन अंधकार में दिखाई पड़ने लगती है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा।
जब नीचे का हिस्सा व्यक्ति का पूर्ण अंधकार से भर जाता है, इस अंधकार की गहराई में ही, इस गहनता में ही अंधकार की, वह जो ऊपर का शीर्ष बिंदु है व्यक्ति का, वह झलक उसकी दिखाई पड़ने लगती है। यह झलक अंधकार के अति पारदर्शी होने से घटित होती है; अंधकार के भी ट्रांसपैरेंट हो जाने से घटित होती है । संकल्प जब अंधकार से जुड़ता है और अंधकार को संवारता है, साधता है, तो अंधकार भी झलक देने लगता है।
सच तो यह है, अंधकार में, अंधकार की पृष्ठभूमि में, कंट्रास्ट में, जब स्वयं का शीर्ष बिंदु दिखाई पड़ता है, तो बड़ी भ्रांति पैदा होती है। ठीक ऐसी ही भ्रांति पैदा हो जाती है, जैसे झील में चांद | को देखकर कोई समझ ले कि चांद यह रहा । और जितना गहरा उतरता जाता है, उतनी ही यह झलक साफ दिखाई पड़ती है। इसे आप एक छोटा-सा प्रयोग करें, तो समझ में आ जाए।
रात आकाश में तारे होते हैं। अभी भी तारे हैं। सुबह सूरज निकलता है, तारे खो जाते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा कि तारे' खोकर जाएंगे कहां? क्या अचानक सब तारे छिप जाते हैं कहीं ! ये तारे सूरज के निकलने से जाएंगे कहां? ये तो अपनी ही जगह होंगे। सिर्फ सूरज की रोशनी के आ जाने से हमारी आंखों पर रोशनी इतनी तेज होती है कि हम इन तारों को देख नहीं पाते। ये तारे सब अपनी ही जगह होते हैं। जब रात सांझ होने लगती है, तो आप कहते हैं कि यह तारा उगा, यह दूसरा तारा उगा ।
आप गलत भाषा बोल रहे हैं। ये तारे दिनभर यहीं थे। सिर्फ इस | तारे पर से सूरज की रोशनी हट गई और आपकी आंख देखने लगी। दूसरे तारे पर से रोशनी हट गई, आपकी आंख देखने लगी। सूरज | डूब रहा है, तारे वापस दिखाई पड़ने शुरू हो रहे हैं । उग नहीं रहे हैं। तारे अपनी जगह मौजूद थे, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह | से, एक लंबा प्रकाश का पर्दा बीच में आ गया था, उसकी वजह से दिखाई नहीं पड़ते थे।
ध्यान रखें, अंधेरे का ही पर्दा नहीं होता, प्रकाश का भी पर्दा होता है। तेज प्रकाश आ जाए, तो कई चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जाती । सूरज की चकाचौंध थी, उसमें ये तारे दिखाई नहीं पड़ते थे।
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