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________________ * गीता दर्शन भाग-4* जाए, तो फिर यह ईश्वर को मानेगा। अगर इसका कैंसर ठीक न | | एक, बहुत प्रेम था गुलाम से। पत्नी भी नहीं सो सकती थी उसके हो, तो फिर यह नहीं मानेगा। | कमरे में, लेकिन गुलाम सोता था। कोई भी साथ न जाए वहां, वहां यह सशर्त, सकाम भावना है। भक्त, सच में निष्काम भक्त | | भी गुलाम साथ होता था। कितनी ही गुफ्तगू की बात हो, बड़े दो परमात्मा से कहेगा कि जो भी तूने दिया, मैं आनंदित हूं; वह फूल सम्राटों से मिलना हो रहा हो, तो भी गुलाम मौजूद होता था। गहरी गिराए तो, और कैंसर बरसा दे तो। जो भी तूने दिया, मैं आनंदित | | मैत्री थी। सम्राट कुछ भोजन भी करता था, तो पहला कौर गुलाम हूं। क्योंकि तू जो देगा, वह ठीक होगा ही। गलत तो वह तब होता | को देता था। है, जब मेरी मांग के विपरीत पड़ता है। जब मेरी कोई मांग नहीं, तो | दोनों शिकार के लिए गए थे। रास्ते में खो गए। भूख लगी, बहुत गलत होने का कोई उपाय नहीं। अन्याय तो तब मालूम पड़ता है, | परेशान थे। एक वृक्ष के पास रुके। एक ही फल था वृक्ष में, सम्राट जब मैं सोचता था कुछ और मिलेगा, और मिलता कुछ और है। ने हाथ बढ़ाकर तोड़ा। सदा के हिसाब के अनुसार उसने एक कली जब मैं देखता हूं कि जो भी मिलता है, वही न्याय है, तब तो कोई | काटी और गुलाम को दी। उस गुलाम ने कली खाई और कहा कि सवाल नहीं है। आश्चर्य, ऐसा अमृत फल! एक कली और दे दें। कृष्ण कहते हैं कि जो मुझ पर सब छोड़ देता है, उसे मैं सम्हाल सम्राट ने दूसरी भी दे दी। गुलाम ने तीसरी भी मांगी। एक ही लेता हूं। और जो मुझ पर छोड़ता नहीं, खुद ही सम्हालता है, उसे टुकड़ा सम्राट के पास बचा। सम्राट ने कहा कि अब बस! हद्द कर खुद ही सम्हालना पड़ता है। दी तूने! अगर इतना अमृत फल है, तो एक तो टुकड़ा मुझे खा लेने • हम सब खुद सम्हाल-सम्हालकर बोझ से दबे जाते हैं। हम उन | दे! गुलाम हाथ से छीनने लगा। उसने कहा कि नहीं मालिक, यह - देहाती यात्रियों की तरह हैं, जो पहली-पहली दफा ट्रेन में सवार हुए | फल ऐसा अमृत है कि मुझे पूरा दे दें। थे, तो अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखकर बैठ गए थे। क्योंकि | सम्राट ने कहा, यह ज्यादती है। यह सीमा के बाहर बात हुई जा उन्होंने सोचा, टिकट तो हमने सिर्फ अपने बैठने की ही चुकाई है! | रही है। तू तीन टुकड़े खा चुका है। दूसरा फल वृक्ष पर नहीं है। हम और फिर उन्होंने यह भी सोचा कि इतना वजन गाड़ी पर पड़े, गाड़ी दोनों भूखे हैं। और मैंने तुझे तीन टुकड़े दे दिए। फल मैंने तोड़ा है। चल सके, न चल सके! वैसे भले लोग थे। उन्होंने सिर पर अपनी और तू आखिरी टुकड़ा भी नहीं छोड़ना चाहता। . पोटलियां रख लीं और बैठ गए। गुलाम ने कहा कि नहीं, छोड़ने को राजी नहीं हूं। हम भी अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखे हैं। हम सोचते हैं, | लेकिन सम्राट न माना। उसने टुकड़ा अपने मुंह में रखा। जहर जीवन चले, न चले! अपना-अपना जीवन तो खींचना ही पड़ेगा। था बिलकुल। उसने गुलाम से कहा, तू पागल तो नहीं है? इसे तू और अपना-अपना खींचने से भी जिनको बोझ काफी नहीं मालूम अमृत कहता है! पड़ता, वे दूसरों का भी खींचते हैं! कई की उतने से भी तृप्ति नहीं । उस गुलाम ने कहा कि जिस हाथ से सदा मीठे फल खाने को होती। उन्हें एकाध राष्ट्र का जब तक बोझ न मिल जाए, उनकी | | मिले, उसके एक जरा-से कड़वे फल की शिकायत भी करनी सारे खोपडी पर जब तक कोई चालीस-पचास करोड आदमियों का जीवन के प्रेम पर पानी फेर देना है। और सवाल फल का नहीं है. बोझ न हो, जब तक उन्हें ऐसा न लगे कि पचास करोड़ लोग उन्हीं | सवाल तो उस हाथ का है, जिसने दिया है। वह हाथ इतना मीठा के कारण चल रहे और जी रहे हैं, तब तक उनको चैन नहीं आता। | है। इसीलिए जिद्द कर रहा था कि वह टुकड़ा मुझे दे दें। आपको इतनी बेचैनी न मिले, तो उन्हें कोई चैन नहीं है! पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गया, तो शिकायत हो हम सबका मन होता है कि मैं चला रहा हूं सब! ऐसा व्यक्ति | | गई। आपको पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गया किसी निष्काम भावना को कैसे उपलब्ध हो सकता है? निष्काम भावना को कारण से, तो शिकायत हो गई। तो जिंदगीभर इतना प्रेम, उसमें यह तो वही उपलब्ध हो सकता है, जो जानता है कि वही चला रहा है, छोटी-सी शिकायत, मेरे छोटे मन का सबूत है। यह फल बहुत तो मैं फिर बीच-बीच में क्यों मांगें खड़ी करूं। फिर मैं बीच-बीच में मीठा था। क्यों कहं कि ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए। पर सम्राट ने कहा कि मुझे कड़वा लगता है। सुना है मैंने, एक मुसलमान बादशाह हुआ। गुलाम था उसका | | तो उस गुलाम ने कहा कि मुझे आपके हाथ के संबंध में पता नहीं, 294
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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