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* विराट की अभीप्सा *
कोई गड़बड़ नहीं होती।
| की ओर गति कर पाता है। __ आदमी इस जगत में अपूर्ण व्यक्तित्व है, बाकी सबके पास पूरा आज इतना ही। व्यक्तित्व है। इस लिहाज से बड़ी कठिनाई है। वह कठिनाई यह है। लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंगे। कौन कि आदमी पूरा आदमी न होने से, चाहे तो जानवरों से भी नीचे गिर जाने, कीर्तन से ही उसकी झलक मिल जाए! और कीर्तन जब यहां सकता है। और यही उसकी गरिमा भी है कि वह चाहे तो आदमी | चले, तो आप खड़े होकर न देखें; बैठकर ही देखें। यहां से भी ऊपर, देवताओं से भी ऊपर उठ सकता है।
आस-पास भी लोग आने की कोशिश न करें। ताकि सब लोग देख इसलिए, आपको यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जानवरों में | | सकें। पांच मिनट बैठे रहें। ताली बजाएं। कीर्तन में सम्मिलित हों। राक्षस कोई भी नहीं होता, क्योंकि जानवरों में देवता कोई भी नहीं | होता। आदमी आदमी भी हो सकता है; नीचे गिर जाए, तो राक्षस भी हो सकता है; ऊपर उठ जाए, तो देवता भी हो सकता है। आदमी एक संक्रमण व्यवस्था है। आदमी सुनिश्चित नहीं है; सृजन में, प्रक्रिया में है। तो आदमी दोनों तरफ जा सकता है।
और ध्यान रहे कि जीवन में ठहराव नहीं होता। अगर आप ईश्वर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप राक्षस की तरफ जाने लगेंगे। क्योंकि जाना पड़ेगा ही; रुकाव नहीं है। जीवन में एक गति है। जाना तो पड़ेगा ही। आप रुक नहीं सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैं जहां हूं, वहीं ठहर जाऊंगा। आप कहीं हैं नहीं। जीवन एक गति है। आपको चलना तो पड़ेगा ही। इसमें कोई चुनाव नहीं है। अगर आप ऊपर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप नीचे की तरफ जाने लगेंगे।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि यह जो तुच्छ समझने वाली दृष्टि है, मुझे, ईश्वर अगर साकार खड़ा हो, तो तुच्छ समझती है; निराकार हो, तो कहती है, कहां है? यह जो बुद्धि है, यह जो मूढ़ता वाली बुद्धि है, यह राक्षसों जैसी हो जाती है, आसुरी हो जाती है। और फिर अपने ही अपने ही-हाथ से बनाए गए अंधकार में अपने को डुबाती चली जाती है।
परमात्मा का कहीं भी लक्षण मिले, कहीं भी जरा-सी झलक मिले, उसे इनकार मत करना। क्योंकि वह तुम्हारे विकास का रास्ता है। कहीं बुराई बिलकुल पक्की भी हो, प्रमाणित भी हो, तो भी संदेह जारी रखना। क्योंकि उसे मान लेना, तुम्हारे गिरने का उपाय हो जाएगा। शैतान बिलकुल दरवाजे पर भी आकर बैठ जाए घर के, तो भी समझना कि नहीं है। और परमात्मा कहीं भी दिखाई न पड़े, तो भी जानना कि यहीं है। क्योंकि उसकी यह प्रतीति तुम्हारे | भीतर जो हो सकता है विकास, उसके लिए सहयोगी होगी।
श्रेष्ठ को स्वीकार कर लेना, न दिखाई पड़ता हो तो भी; अश्रेष्ठ को इनकार कर देना, बिलकुल प्रत्यक्ष हो तो भी। तो ही मनुष्य ऊपर
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