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________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म * के घट जाने का कारण और है। | एंड दि नोइंग। ज्ञान तीन हिस्सों में टूट जाता है। धर्म वसीयत नहीं किया जा सकता। इसलिए आप धर्म के मामले | लेकिन ज्ञानी की जो आकांक्षा है, वह किसी चीज को बाहर से में अपने बाप के कंधे पर खड़े नहीं हो सकते। आपको अपने ही जानने की नहीं है। क्योंकि बाहर से जाना, तो क्या जाना! अगर मैं पैर की जमीन खोजनी पड़ती है। इसलिए धर्म में बढ़ती नहीं हो | आपके पास आऊं और आपके चारों तरफ घूमकर आपको जान सकती है हर पीढ़ी के साथ। एक ही रास्ता है बढ़ती का कि हर पीढ़ी | लूं, तो जानने वाले की इच्छा पूर्ण नहीं होगी, क्योंकि यह जानना न धर्म को खोजती चली जाए। लेकिन अगर हम अपने बाप की | हुआ, केवल परिचय हुआ। अगर मैं जाऊं और एक वृक्ष के चारों वसीयत पर सोचते हों कि धर्म मिल जाएगा, तो धर्म खो जाएगा। | तरफ चक्कर लगाकर देख लूं, तो यह जानना न हुआ; एक्वेनटेंस तब हम झूठे धर्म में खड़े रह जाएंगे। हुआ, पहचान हुई। इसलिए कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत कीमत की बात कही है। तो जानने की जिसकी खोज है, वह इतने से राजी नहीं होगा। वह पहली, कि बहुत-बहुत रूपों से मेरी तरफ मार्ग आते हैं। कोई हैं, | | तो कहेगा, जब तक मैं वृक्ष ही न हो जाऊं, तब तक जानना पूरा जो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान के द्वारा पूजते हैं। ज्ञान ही नहीं है। क्योंकि जब तक मैं वृक्ष से जरा भी दूर रहूंगा, तब तक उनका यज्ञ है। एकत्व-भाव से, जो कुछ है, सब वासुदेव ही है, बाहरी परिचय रहेगा, भीतरी पहचान नहीं होगी। भीतरी पहचान का ऐसे भाव से उपासते हैं। यह पहला वर्ग है बड़ा। तो एक ही रास्ता है कि मैं वृक्ष के फूल को बाहर से न देखू, इस - तीन वर्ग हैं। एक वर्ग है, जिसके व्यक्तित्व का ढांचा ज्ञान का | तरह वृक्ष में लीन हो जाऊं कि मैं फैल जाऊं वृक्ष के पत्तों में, है। इसे हम थोड़ा समझ लें। इसमें भी बहुत शाखाएं होंगी, लेकिन | शाखाओं में, जड़ों में, फूल में। मैं वृक्ष के भीतर एक हो जाऊं। फिर भी एक मोटा विभाजन किया जा सकता है। मुझमें और वृक्ष में रत्तीभर का फासला न रह जाए, तब जानना • एक वर्ग है मनष्य का. जिसका ढांचा ज्ञान का है। ज्ञान के ढांचे घटित होगा। तब मैं कह सकंगा. मैंने वक्ष को जाना। अगर बाहर से अर्थ है, ऐसा व्यक्ति जानने को आतुर होता है। ऐसा व्यक्ति | | से ही जाना, तो इतना ही कह सकूँगा कि वृक्ष की थोड़ी मुझे पहचान अपना जीवन भी गंवा सकता है जानने के लिए। जानना उसका | है। लेकिन दूरी है इस पहचान में। सबसे बड़ा रस है। जिज्ञासा उसका मार्ग है। वह कुछ भी खो सकता तो ज्ञान की प्रक्रिया में टूट जाती है घटना तीन में। लेकिन जो है। वह कुछ भी दांव पर लगा सकता है। उसे अगर इतना भर पता | ज्ञान का खोजी है, वह इस कोशिश में रहेगा कि एक दिन ऐसा चले कि एक इंच ज्यादा मेरा जानना हो जाएगा, तो वह सब कुछ | आए, जब ज्ञाता ज्ञेय हो जाए; व्हेन दि नोअर बिकम्स दि नोन, ऑर दांव पर लगा सकता है। अगर आप ऐसे व्यक्ति से पूछे कि जानकर |दिनोन बिकम्स दि नोअर, व्हेन दि आब्जर्वर इज़ दि आब्जर्ल्ड, जब क्या करोगे? तो वह कहेगा, जानकर करने की कोई जरूरत नहीं, | दोनों एक हो जाएं। उसके पहले ज्ञानी की तृप्ति नहीं है। जानना काफी है। ऐसा व्यक्ति कहेगा कि जानना पर्याप्त है, नालेज | | इसलिए अगर हम ज्ञानी से कहें कि परमात्मा आकाश में है,वह फार नालेज सेक। वह कहेगा, जानना जानने के लिए ही। जानना | मानने को राजी नहीं होगा। वह तो कहेगा, जब मेरी अंतरात्मा में काफी है, और क्या करना है! बुद्ध जैसा व्यक्ति है, जानना काफी | | होगा, तभी मैं मान सकता हूं। या मैं परमात्मा की अंतरात्मा में है। उसके लिए जानना ही उसकी आत्मा बन जाती है। प्रविष्ट हो जाऊं, तब मैं मान सकता हूं। इसके पहले मेरे मानने का - जो जानने की दिशा में चलेगा, वह अंततः पाएगा कि एक ही | | कोई भी उपाय नहीं है। शेष रहा, क्योंकि ज्ञान का जो अंतिम चरण है, वह अद्वैत है। क्यों .. इसलिए आकाश का परमात्मा ज्ञानी के काम नहीं आएगा। अगर ऐसा है, इसे हम थोड़ा समझें। हम कहें कि मंदिर की प्रतिमा में परमात्मा है, तो वह उसे नहीं मान जब भी हम कुछ जानते हैं, जब भी हम कुछ जानते हैं, तो जानने | सकेगा। क्योंकि प्रतिमा के आस-पास घूमा जा सकता है, प्रतिमा की घटना में तीन हिस्से टूट जाते हैं। जानने वाला अलग हो जाता में प्रवेश कैसे होगा? अगर हम कहें. शास्त्रों में परमात्मा है. तो वह है; जिसे जानता है, वह जानी जाने वाली चीज अलग हो जाती है | कहेगा, शास्त्रों को पढ़ा जा सकता है, शब्दों को समझा जा सकता और दोनों के बीच ज्ञान का संबंध घटित होता है। तो ज्ञान तीन | है, लेकिन प्रवेश कैसे होगा? हिस्से में टूट जाता है, ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान; दि नोअर, दि नोन, | ज्ञानी की आत्यंतिक खोज इस बात के लिए है कि कब मैं उसके 247
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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