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* भाव और भक्ति *
सब पोथी विचार की साथ ही ढोते हैं। और हमें मौका मिले, तो हम परमात्मा को भी चीर-फाड़ करके, शल्यक्रिया करके, सर्जरी करके, ठीक से उसकी जांच करके, बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल की किताब में लिखना पसंद करें।
लेकिन इस विचार को ढोने वाले आदमी को उससे कभी मिलना नहीं हो पाता, इसलिए उसकी शल्यक्रिया नहीं कर पाते। नहीं तो बहुत लोग परमात्मा का पोस्टमार्टम करने को इतने उत्सुक हैं! मिल भर जाए कहीं उसकी लाश, तो वे पोस्टमार्टम कर लें ! परमात्मा में उनकी उत्सुकता नहीं है; उनकी उत्सुकता अपने विचार और अपने सिद्धांतों में है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में बुजुर्ग आदमी था, तो कभी-कभी लोग उससे दवा भी पूछ ले जाते थे। गांव का बुजुर्ग था, कुछ दवाएं
जानता था।
एक संदेहशील आदमी उसके पास आया और उसने कहा कि मुल्ला, दवा तो तुम्हारी लेता हूं, लेकिन अब चिकित्सकों का कोई भरोसा नहीं रहा। मेरा एक मित्र था, चिकित्सक उसका निमोनिया इलाज करता रहा और आखिर में जब वह मरा, तो पोस्टमार्टम में पता चला कि वह टी.बी. का बीमार था !
मुल्ला ने कहा, बेफिक्र रहो, जब मैं निमोनिया का इलाज करता हूं, तो आदमी हमेशा निमोनिया से ही मरता है ! और अब तक हर पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में मैं सही सिद्ध हुआ हूं। तुम बेफिक्र रहो। अगर मेरी दवाई से मरोगे, तो निमोनिया से ही मरोगे। ऐसा कभी नहीं होता है कि कोई दूसरी बीमारी से मर जाता हो।
विचारवादी उत्सुक है अपने विचार में। वह कहता है कि अगर . मैंने कहा कि निमोनिया है, तो निमोनिया से ही मरोगे। और अगर नहीं मानते, तो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट सिद्ध करेगी कि निमोनिया से ही मरे । न तुमसे उसे प्रयोजन है— विचार को अपने अहंकार से प्रयोजन है। इसलिए विचार के आस-पास जो लोग घूमते रहते हैं, वे अहंकार के आस-पास घूमते रहते हैं । और अहंकार से परमात्मा का क्या लेना-देना है।
ध्यान रहे, भाव की दशा में अहंकार नहीं बचता । भाव का कोई अहंकार नहीं है। क्यों? क्योंकि अहंकार पैदा होता है दूसरों के संसर्ग में। इसलिए जब आदमी अपने से बाहर जाता है, तो अहंकार पैदा होता है। क्योंकि जहां तू है, वहां मैं के पैदा होने की जरूरत पड़ जाती है। लेकिन जब आदमी अपने भीतर जाता है, वहां कोई तू है ही नहीं, तो वहां मैं को पैदा होने की कोई जरूरत नहीं रह
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जाती। मैं अकेला नहीं जी सकता; उसके लिए तू का छोर चाहिए।
भाव अंतर्प्रवेश है, जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ लौटने लगे | वापस । भाव जो है, गोइंग बैक, वापस लौटना है। विचार जो है, | दौड़ना है बाहर की ओर। इसलिए विचार चांद पर ले जाएगा, मंगल पर ले जाएगा, महासूर्यों पर ले जाएगा। बस, एक जगह नहीं ले | जाएगा - आदमी के भीतर। विचार कहेगा, चलो और दूर, और दूर। जितनी दूर की यात्रा होगी, उतना विचार प्रसन्न होगा। सिर्फ एक यात्रा पर विचार इनकार कर देगा, भीतर की यात्रा पर । वह कहेगा, क्या बेकार के काम में लगे हो ? भीतर जाने की जरूरत | क्या है ? और भीतर कहीं कुछ है कि जा सकोगे? चांद पर चलो, आकर्षण तीव्र है। भीतर क्या रखा है ?
और अगर कभी विचार थक भी गया बाहर से और भीतर जाने की कोशिश की, तो भी वह भीतर नहीं जा पाता । फिर भी वह बाहर - बाहर ही घूमता है। विचार भीतर जा ही नहीं सकता। वह है ही बाहर के लिए। वह आयाम ही उसका बाहर है।
भाव भीतर जाता है। लेकिन भाव का हमें कोई खयाल नहीं है। कोई भी खयाल नहीं है। आमतौर से जिसे हम भाव कहते हैं, वह भी भाव नहीं है।
एक मां अपने बेटे को प्रेम करती है। निश्चित ही, हम कहेंगे, यह विचार नहीं, भाव है। लेकिन उस मां को आज ही पता चल जाए कि यह बेटा उसका नहीं है। जब वह प्रसव पीड़ा में पड़ी थी, तब अस्पताल में किसी ने उसका बेटा बदल लिया। बीस साल से | वह प्रेम करती थी। यह आज पता चला, डाक्युमेंट हाथ में आ गए, सारे प्रमाणपत्र मिल गए कि बेटा उसका नहीं, किसी और का है। क्या आप सोचते हैं, प्रेम ठीक वैसी ही धारा में बहता रहेगा, जैसा बह रहा था एक क्षण पहले तक ?
नहीं; धारा अवरुद्ध हो जाएगी, सब बिखर जाएगा। तो यह बेटे से भाव का संबंध था या यह भी विचार का ही संबंध था ? चूंकि यह मेरा बेटा है । मेरा बेटा है, तो संबंध था; और मेरा नहीं है, तो संबंध एकदम शिथिल होगा और खो जाएगा। →
भाव मेरा-तेरा नहीं जानता। सिर्फ विचार ही मेरा और तेरा जानता है। इसलिए जिस मां ने मां होने का आनंद नहीं लिया और सिर्फ मेरे बेटे को प्रेम किया, अभी उसके भाव का जन्म नहीं हुआ | है। यह भी विचार है।
भाव मेरा-तेरा जानता ही नहीं, भाव सिर्फ प्रेम जानता है। वह मेरा हो तो भी, और तेरा हो तो भी। और भाव जब गहन होता है,