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* गीता दर्शन भाग-4*
मूर्तिकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। कभी किसी नृत्यकार जैसे कभी-कभी आपको भय लगता है; लगता है, कोई मौजूद को भी उसकी झलक मिल जाती है। ध्यानी को सदा उसकी झलक | है और दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही मलिक भी घबड़ा गए। मिलती रही है। ये सारे के सारे लोग सृजन की प्रक्रिया में मौजूद | घबड़ाहट दोहरी थी। एक तो यह थी कि मैं अपराध कर रहा हूं; मुझे होते हैं।
यहां रुकना नहीं चाहिए। और दूसरी घबड़ाहट यह थी कि चारों इसे हम ऐसा समझें। रवींद्रनाथ को जब भी कोई गीत जन्मता, | तरफ कोई मौजूद हो गया था। वह जगह खाली न रही थी। तो वे खाना-पीना बंद कर देते थे—बंद हो जाता था। खा-पी नहीं | घड़ी दो घड़ी, फिर मलिक के पैर बंध गए। अब वे भागना भी सकते थे। द्वार-दरवाजे बंद कर लेते थे। मिलना-जुलना बंद कर चाहते हैं, वहां से हट भी जाना चाहते हैं, लेकिन अब हट भी नहीं देते थे-बंद हो जाता था। मिल नहीं सकते थे। होंठ बंध जाते थे। सकते; किसी चीज ने जैसे कि जमीन से कशिश बांध ली। आंखें बोलने की असमर्थता हो जाती थी। द्वार-दरवाजे बंद करके, ।। झपकाना चाहते हैं, झपकती नहीं हैं। श्वास जैसे ठहर गई हो। वहां भूखे...। वे सो नहीं सकते थे। जब भी कोई गीत उनमें जन्म लेता कोई विराट जैसे उतर आया चारों तरफ। सारा स्थान किसी की था, तो जब तक वह पूरा जन्म न ले ले, तब तक वे और कुछ भी उपस्थिति से भर गया। रवींद्रनाथ डोल रहे हैं, जैसे कोई वृक्ष नहीं कर सकते थे। मनाही थी कि जब रवींद्रनाथ अपने कमरे में बंद हवाओं में डोलता हो। कि रवींद्रनाथ नाच रहे हैं, जैसे कोई मोर होकर कुछ लिखते हों, तो कोई आस-पास न आए। | आषाढ़ में नाचता हो। कि रवींद्रनाथ के भीतर कुछ हो रहा है, जैसे
कभी ऐसा भी हो जाता था—क्योंकि सृजन के क्षणों के लिए किसी मां के गर्भ से बच्चे का जन्म हो रहा हो। कोई प्रेडिक्शन, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती-रवींद्रनाथ बैठे | रात गहरी होने लगी, और रवींद्रनाथ वैसी ही अवस्था में हैं। फिर हैं, मित्र पास बैठे हैं, या शिष्य पास बैठे हैं, और अचानक उनकी | वे स्वस्थ हुए, वापस हुए। और जैसे ही वे स्वस्थ और वापस हुए, आंखें बंद हो गईं, और गीत का जन्म शुरू हो गया। तो लोगों को मलिक के पैर जमीन से जैसे छूट गए, वे भागे। बाद में उन्होंने खबर थी कि चुपचाप हट जाना है। वहां फिर जरा भी बाधा नहीं | रवींद्रनाथ से जाकर दूसरे दिन पूछा कि अपराध मेरा क्षमा हो। रात डालनी है। इतना भी नहीं कहना है कि अब मैं जाऊं! क्योंकि इतना | | मैं चोरी छिपे खड़ा रह गया था। ऐसा लगा कि आप तो मिट गए, भी उस भीतर हो रही रचना की प्रक्रिया में बाधा बन जाएगी। कोई और मौजूद हो गया था!
गुरदयाल मलिक ने लिखा है कि मैं नया-नया गया था। नियम रवींद्रनाथ ने कहा कि मैंने अब तक स्वयं कुछ भी नहीं लिखा तो मुझे पता था, लेकिन मन में एक अभिलाषा भी थी कि जब सच | है। जब मैं मिट जाता हूं, तभी कोई मुझसे लिखवा जाता है। जब में ही गीत जन्मता है, तब मैं भी छिपकर देख लूं कि रवींद्रनाथ को | मैं नहीं होता हूं, तभी कोई मुझसे गा जाता है। और मैं लाख कोशिश होता क्या है!
करूं, कितने ही सुंदर शब्दों को जमाऊं, तुकबंदी तो बन जाती है, पांच-सात मित्र बैठकर गपशप करते थे और रवींद्रनाथ अपने | लेकिन काव्य का जन्म नहीं होता। काव्य का जन्म तो तभी होता है, हाथ से चाय बनाकर उनको पिला रहे थे। अचानक उनके हाथ से | जब मैं मिट जाता हूं, जड़-मूल से खो जाता हूं। प्याली छूट गई। सब लोग चुपचाप वहां से अधूरी चाय पीए उठ अगर रवींद्रनाथ को इस काव्य के जन्म के क्षण में ही ईश्वर का गए। लोगों ने मलिक को भी इशारा किया। मन तो नहीं था उठने अहसास हो, तो हो सकता है। क्योंकि जब भी जगत में कोई चीज का, लोग नहीं माने तो उन्हें भी उठ जाना पड़ा।
सृजित होती है, कहना चाहिए, इन दि मोमेंट आफ क्रिएशन; नाट लोग तो चले गए, मलिक बाहर दीवाल के पास छिपकर बैठ | व्हेन इट हैज बीन क्रिएटेड; पैदा हो गई तब नहीं, सृजित हो गई तब गए। रवींद्रनाथ की आंखों से आंसू बहने लगे, और उनके शरीर में | नहीं, जब सृजन हो रही होती है; इन दि वेरी प्रोसेस, प्रक्रिया में होती एक पुलकन और एक सिहरन का दौर शुरू हो गया। जैसे | है; जब जन्म हो नहीं गया होता, जन्म हो रहा होता है, तब रोआं-रोआं किसी अज्ञात ऊर्जा से भर गया हो, और जैसे रोएं-रोएं। कभी-कभी उसकी झलक मिल जाती है। क्योंकि उसकी मौजूदगी में कोई सूक्ष्म स्पंदन प्रवेश कर रहे हों। कोई अनूठी शक्ति ने सारे के बिना किसी भी चीज का जन्म नहीं होता है। उसकी मौजूदगी के कमरे को घेर लिया है, ऐसा मलिक को भी अनुभव होने लगा। बिना, उस कैटेलिटिक के मौजूद हुए बिना, एक कविता भी जन्मती कोई मौजूदगी!
नहीं है।
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