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विराट की अभीप्सा
तरह घिर गए हैं कि सृजन का कोई सवाल ही नहीं है ! क्योंकि आदमी की बनाई हुई चीजों में ग्रोथ तो होती नहीं। आप एक मकान बनाते हैं, वह बढ़ता तो है नहीं। आप एक कार ले लेते हैं, वह बढ़ती तो है नहीं । आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज में ग्रोथ तो होती नहीं, विकास तो होता नहीं, जन्म तो होता नहीं। आदमी की तो सब बनाई हुई चीजें मुर्दा हैं; उनमें जीवन की कोई धारा तो है नहीं।
तो बड़े मकान हैं सीमेंट-कांक्रीट के, वे आकाश को छू रहे हैं। उनके पास आदमी कितनी ही देर खड़ा रहे, परमात्मा की प्रतीति नहीं हो पाएगी, क्योंकि वहां कुछ भी तो जन्म नहीं हो रहा है। सीमेंट-कांक्रीट, जैसे मृत्यु का साकार रूप ! जैसे मुर्दा होने का इससे ज्यादा और कोई अच्छा ढंग नहीं हो सकता !
आदमी जितना आदमी की बनाई चीजों से घिर जाता है, उतना ही उसे जन्म के क्षण में खड़ा होना मुश्किल हो जाता है, उतना ही वह सृजन के करीब नहीं रह जाता।
अभी लंदन में सर्वे हुआ, तो दस लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। पांच लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है।
अगर ये बच्चे बड़े होकर पूछें कि परमात्मा कहां है? तो कोई कठिनाई है ? जिन्होंने गाय नहीं देखी, जिन्होंने खेत नहीं देखा, अगर ये कहें कि परमात्मा कहां है? तो इनके प्रश्न में कोई आपको बुराई मालूम पड़ती है? इनका प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है; क्योंकि जीवन को इन्होंने कहीं भी बढ़ते हुए नहीं देखा। चीजों
दुनिया देखी है, सृजन की दुनिया नहीं देखी।
तो फिर स्वाभाविक है, अगर ये कविता भी लिखेंगे, तो उसमें रेल का इंजन आएगा, आकाश के तारे नहीं आएंगे। ये कविता लिखेंगे, तो उसमें भी मिल की चिमनियां आएंगी, खिलते हुए फूल नहीं आएंगे। अगर ये चित्र भी बनाएंगे - जैसा कि पिछले पचास साल की पूरी चित्रकला कहेगी - अगर ये चित्र भी बनाएंगे, तो उन चित्रों में भी अखबार की कटिंग काट-काटकर चिपका देंगे, कोलाज कहेंगे ! उसमें भी आदमी की जो-जो विकृतियां हैं, वे उभरकर सामने आएंगी।
पिकासो के चित्रों को अगर देखा जाए, तो वे हमारे मन की पूरी कथा हैं। लेकिन उनमें फूल खिलते मालूम नहीं पड़ेंगे; उनमें कोई चीज बढ़ती हुई मालूम नहीं पड़ेगी; उनमें किसी का जन्म होता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक अस्वाभाविक वस्तुओं के जगत में घिरकर जी रहे हैं, जहां कोई चीज पैदा नहीं
होती; हर चीज बनाई जाती है। जहां किसी चीज का जन्म नहीं होता, जहां हर चीज सिर्फ जोड़ी जाती है।
आदमी को प्रभु को खोजना हो, तो सृजन के निकट ही उसे खोज सकता है।
ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग, मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं।
मूढ़ एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ मूर्ख नहीं होता, यह पहले समझ लें । मूढ़, मूर्ख से भी खतरनाक अवस्था है। मूर्ख का मतलब होता है, जिसे पता नहीं है; मूढ़ का मतलब होता है, जिसे पता नहीं है, लेकिन जो सोचता है कि उसे पता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें।
मूर्ख वह है, जिसे पता नहीं है। उसे क्षमा किया जा सकता है। उसे पता ही नहीं है। अज्ञानी है। लेकिन यह अज्ञान सिर्फ अभाव है। इसमें उसे कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। पता नहीं है।
एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। मूढ़ होने के लिए जरा ज्यादा उम्र होना जरूरी है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। वह सुविधा बूढ़ों के लिए ही है, मूढ़ होने की। तो जितनी ज्यादा उम्र हो, उतना आदमी ज्यादा मूढ़ सकता है। क्योंकि उसे पता
| बिलकुल नहीं है, लेकिन ऐसा पता लगने लगता है जीवनभर के अनुभव से कि मुझे पता है।
ईश्वर को जो इनकार करने वाले लोग हैं, वे अज्ञानीजन नहीं हैं। वे वे लोग हैं, जिन्हें खयाल है कि वे ज्ञानी हैं। स्वयं को ज्ञानी मानने का जिन्हें खयाल है, वे मूढ़ हो सकते हैं। मूढ़ का मतलब है, अज्ञान अकेला नहीं, धन अहंकार भी । अज्ञान + अहंकार, तो मूढ़ता पैदा होती है। मूढ़ता का मतलब है कि मैं जानता हूं; और मुझे कुछ भी भीतर पता नहीं है। लेकिन मेरा अहंकार कैसे स्वीकार करे कि मैं नहीं जानता हूं!
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आप अपनी तरफ सोचें, तो आपको पता चलेगा, मूर्खता बड़ी बीमारी नहीं है, मूढ़ता बड़ी बीमारी है। कितने सवाल हैं, जिनके जवाब आप देते हैं, बिना जाने हुए !
अगर छोटा बच्चा अपने बाप से पूछता है कि ईश्वर है ? बाप को बिलकुल पता नहीं है। लेकिन वह या तो कहता है, है; या कहता है, नहीं है। कोई भी जवाब दे, लेकिन एक जवाब कभी नहीं देता कि मुझे पता नहीं है। यह मूढ़ता है।