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* गीता दर्शन भाग-4
कठिन हो जाएगा। क्योंकि सृजन की घड़ी में परमात्मा की मौजूदगी उसके बिना सृजन नहीं हो सकता। अनिवार्य है। उसकी मौजूदगी के बिना कहीं भी सृजन नहीं होता। तो कृष्ण कहते हैं, मैं मौजूद, मेरी मौजूदगी काफी है। हे अर्जुन! वह कैटेलिटिक एजेंट है। जहां भी कुछ पैदा होगा, वह सदा मौजूद | मेरी उपस्थिति मात्र से प्रकृति सर्व जगत को रच लेती है। और इस होता है। उसके बिना पैदा ही नहीं होता। और जहां भी विध्वंस ऊपर कहे गए कारण से ही जगत बनता और बिखरता रहता है। मैं होगा, वहां वह सर्वाधिक दूर होता है।
कुछ करता नहीं हूं। मुझे कुछ करना नहीं पड़ता है। मुझे हिलना भी ध्यान रहे, जितना सृजनात्मक क्षण हो, उसकी निकटता होती है। नहीं पड़ता है। मुझे वासना भी नहीं करनी पड़ती है। मुझे इच्छा भी जितने विध्वंस का क्षण हो, उससे उतनी ही ज्यादा दूरी हो जाती है। | नहीं करनी पड़ती है। बस, मेरा होना ही सृजन है।
इसलिए महावीर ने अगर हिंसा को अधर्म कहा है, तो उसका | __ अगर हम इसे ऐसा कहें, तो बहुत आसान हो जाएगा। हम सदा कारण है। उसका कुल कारण इतना है कि जब भी हम विध्वंस कर कहते रहे हैं, गॉड इज़ दि क्रिएटर, ईश्वर स्रष्टा है। बेहतर हो, हम रहे होते हैं, तब हम परमात्मा से सर्वाधिक दूरी के बिंदु पर होते हैं। | कहें, गॉड इज़ दि क्रिएटिविटी, ईश्वर सृजन की प्रक्रिया है; ईश्वर अगर इसे इस भांति समझेंगे, तो अहिंसा का नया अर्थ खयाल में सृजनात्मकता है। व्यक्ति कम, प्रक्रिया ज्यादा। व्यक्ति कम, प्रवाह आएगा। इसे ऐसा समझें, हिंसा का अर्थ है विध्वंस; अहिंसा का ज्यादा। क्योंकि व्यक्ति तो रुका हुआ हो जाता है, प्रवाह सतत अर्थ है सृजन।
गतिमान है। और व्यक्ति की तो सीमा हो जाती है, प्रवाह की कोई लेकिन नासमझ लोगों का कोई हिसाब रखना मुश्किल है। सीमा नहीं है। नासमझ लोगों ने अहिंसा का अर्थ लिया है कि हिंसा मत करो, तो परमात्मा एक सृजन का प्रवाह है। और जहां उसकी मौजूदगी अपने को रोककर बैठ जाओ। उनकी अहिंसा सजनात्मक या है, वहीं अनंत-अनंत रूपों में सजन प्रकट होने लगता है। जीवन क्रिएटिव नहीं है; मुर्दा, मरी-मराई है। हिंसा विध्वंस है, तो अहिंसा | | का खेल उसकी मौजूदगी का आनंद है। उसके मौजूद होते ही जीवन को सृजन होना चाहिए। तो ही अहिंसा उसके विपरीत होगी। उत्सव से भर जाता है। उसके मौजूद होते ही राग-रंग; उसके मौजूद
अगर मैं चींटियां न मरें, ऐसा सम्हल-सम्हलकर निकल जाऊं; | | होते ही फूल खिल उठते हैं और गीत का जन्म हो जाता है। मैं फूल न तोडूं, क्योंकि हिंसा हो जाएगी; मैं किसी को चोट न जहां भी कुछ जन्म रहा हो, वहां मौन होकर बैठ जाना; • पहुंचाऊं कि हिंसा हो जाएगी; मैं चलना-फिरना, सब गति रोक हूँ, | परमात्मा निकट है। एक कली फूल बन रही हो, तो भागे हुए मंदिर क्योंकि हिंसा हो जाएगी; मैं अपने मुंह पर पट्टियां बांध लूं कि कहीं | मत चले जाना! श्वास में कोई जीव-जंतु न मर जाए; मैं पानी छानकर पी लूं कि कहीं मगर पागलों का जगत है। फूल जन्म रहा है, वहां वे खड़े भी न कोई हिंसा न हो जाए; मैं रात का भोजन बंद कर दूं-यह सब ठीक | होंगे! बल्कि उस कली को तोड़कर भागेंगे मंदिर की तरफ, है। लेकिन यह बिलकुल गैर-सृजनात्मक है, नान-क्रिएटिव है। परमात्मा को चढ़ा देने के लिए!
इतना काफी नहीं है कि चींटी न मरे; अपर्याप्त है। जरूरी है कि अच्छा होता कि वहीं बैठ जाते, जब कली फूल बन रही थी। मेरे द्वारा जीवन को जन्म मिले। इतना काफी नहीं है कि कोई मुझसे | वहां परमात्मा ज्यादा संभव था, बजाय उस मंदिर के, जहां आप मरे न; इतना जरूरी है कि मेरे द्वारा जीवन को गति मिले, जीवन फूल को तोड़कर ले आए हैं। पता ही नहीं। बढ़े और फैले। इतना काफी नहीं है कि मैं फूल न तोडूं; यह जरूरी जहां भी कोई चीज पैदा हो रही हो-सुबह का सूरज जन्म ले है कि मैं फूल लगाऊं, फूल मेरे द्वारा खिले।
रहा हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो; सुबह आ रही हो; जब तक अहिंसा सृजनात्मक न हो, तब तक नपुंसक होती है। भोर पैदा हो रही हो; या सांझ का पहला तारा उग रहा हो-वहां और इस मुल्क की अहिंसा नपुंसक हो गई है, इंपोटेंट हो गई है। रुक जाना! पवित्र मंदिर बहुत करीब है; वहीं है; वहां ठहर जाना! क्योंकि उसका अर्थ हो गया है, यह मत करो, यह मत करो, यह वहां शांत, उस सृजन के साथ एक हो जाना! तो उसकी उपस्थिति मत करो! डोंट उसका स्वर हो गया है। तो इससे इतना तो हुआ कि अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी। विध्वंस मत करो, लेकिन क्या करो, उसका कोई स्वर नहीं है। | इसलिए यह हमारी सदी परमात्मा से दूर हो गई मालूम पड़ती है,
परमात्मा की गहनतम प्रतीति सृजन के क्षण में होती है, क्योंकि उसका कारण यह है कि हम आदमी की बनाई हुई चीजों से इस बुरी
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