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________________ * वासना, समय और दुख * बनेगा, घर नहीं बनेगा; दुख का घर बनेगा। कसम नहीं खाता कि मैं कसम खाता हूं कि सच ही बोलूंगा। क्योंकि हमारा सारा दुख इस बात से पैदा होता है कि हम, थिर जो नहीं । | क्वेकर कहते हैं, जिसने कसम खाई, वह बचेगा क्षणभर बाद? है, उसको सब जगह थिर कर लेना चाहते हैं। कहते हैं, मेरा प्रेम सब बहा जा रहा है। इस बहाव में हम सब कोशिश में लगे हैं थिर रहेगा। मां कहती है कि मेरा बेटा है; यह प्रेम सदा रहेगा। | ठहर जाने की, ठहर जाएं! बस, दुख पैदा होगा। तंबू गाड़ रहे हैं लेकिन कल एक नई लड़की को लेकर बेटा घर लौट आता है और | | बहती हुई नदी की धार पर। फंसेंगे मुसीबत में। तंबू में डूबेंगे खुद पता चलता है, मां उस बेटे की आंखों में अब दिखाई ही नहीं पड़ती! | और। खूटियां नहीं गाड़ी जाती पानी पर और न तंबू खड़े किए जाते धक्का लगता है। दुख आता है। हैं। और स्थिर तंबू, शाश्वत तंबू खड़े करने की कोशिश चलती है, लेकिन दुख के लिए बेटा जिम्मेवार नहीं है। दुख के लिए मां की | वह कामना जिम्मेवार है, जो सोचती थी कि प्रेम थिर रहेगा। इस । दुख, क्षणभंगुर जीवन के स्वभाव में शाश्वत को बनाने की बेटे ने जब उसके आंचल में सिर रखकर मुस्कुराया था और प्रेम से चेष्टा का फल है। अनित्य है जो, उसमें नित्य को खड़ा करने की उसे देखा था, वह अभी भी उसी को थिर रखने की कोशिश में लगी जो वासना है, वही दुख बन जाती है। लेकिन जो क्षण को क्षण जैसा है। वह वासना अब दुख देगी। जान ले, उसके दुखी होने का फिर कोई कारण नहीं। क्योंकि वह आज जिस पत्नी को लेकर यह घर में चला आया है, उसकी | | आकांक्षा ही नहीं करता उसकी, जो विपरीत है। उमंग का कोई अंत नहीं है, उसके पैर जमीन से नहीं लगते हैं। कृष्ण कहते हैं, वे जो परम सिद्धि को प्राप्त होते महात्माजन, मुझे क्योंकि आज वह रानी हो गई है। और इस यवक ने उसे कहा है कि प्राप्त होकर क्षणभंगुर पुनर्जन्म को उपलब्ध नहीं होते। तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। और मैं मर जाऊं, लेकिन क्योंकि जिसने भी प्रभु को जाना—प्रभु को अर्थात शाश्वत को, सोच भी नहीं सकता कि कभी मेरे प्रेम में क्षणभर की भी, कणभर नित्य को, इटरनल को, वह जो सदा है वह फिर क्षणभंगुर की की भी कमी होगी। लेकिन कल वही पाएगी कि उसके साथ चलते कामना नहीं करता। जिसे ठोस लोहे के महल मिल गए हों, वह रास्ते पर किसी और स्त्री पर उसकी आंख गई है। और उस क्षण में | | ताश के पत्तों के घरों में रहने की कोशिश नहीं करता। वह उसे भूल ही गया है कि वह पास भी है। ___ मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। ऐसे तो लोहे के ठोस घर मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है अपनी पत्नी के साथ। भी ताश के ही घर हैं। समय का ही फासला है। ताश का घर, हवा अभी सात ही दिन हुए हैं विवाह हुए। और एक सुंदर युवती उसे का एक झोंका आता है, और गिर जाता है। लोहे के घर दिखाई पड़ती है, और उसकी आंखें टकटकी लगाकर रह जाती हैं। लाख-करोड़ झोंके आएंगे, तब गिरेगा। क्वांटिटी का फर्क है, उसकी पत्नी उसे बीच-बीच में हिलाती है, जैसा कि सभी पत्नियां क्वालिटी का कोई फर्क नहीं है। चाहे रेत का घर बनाएं और चाहे पतियों को हिलाती रहती हैं। क्या कर रहे हो? भूल गए क्या कि सीमेंट-कांक्रीट का; रेत का घर एकाध झोंके में गिर जाएगा, अब तुम विवाहित हो! नसरुद्दीन ने कहा, ऐसे वक्त में तो बहुत | सीमेंट-कांक्रीट का घर गिरने में जरा ज्यादा देर लेगा। बस, देर का ज्यादा याद आता है कि अब मैं विवाहित हूं! भूल नहीं गया हूं। ऐसे | ही फर्क है, टाइम का ही फर्क है। वह भी गिर जाएगा। क्योंकि क्षण में ही काफी याद आता है कि नाउ आई एम मैरिड! सीमेंट-कांक्रीट भी रेत से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। अभी सात दिन पहले इस आदमी ने क्या कहा था? नहीं, इसका | लेकिन जिसने एक कण भी अनुभव कर लिया हो उसका, जो कोई कसूर नहीं है। कुछ भी थिर नहीं है इस जगत में। कहे हुए शाश्वत है, उसके लिए सारा जगत उसी क्षण स्वप्नवत हो जाता है। वचन थिर नहीं, दिए गए वायदे थिर नहीं, क्योंकि देने वाला आदमी | | फिर उसमें उसकी कामना नहीं रह जाती है। ही थिर नहीं है। बुद्ध को जिस दिन अनुभव हुआ समाधि का, उनके मुंह से जो ईसाइयों का एक संप्रदाय है, क्वेकर। क्वेकर किसी को प्रामिस पहला वचन निकला, वह यह था कि हे मेरे मन, अब मैं तुझे विश्राम नहीं देते; वे किसी को वचन नहीं देते। क्योंकि वे कहते हैं, वचन | | देने को तैयार हूं, क्योंकि अब मुझे और जीवन के घर बनाने की देने वाला ही जब थिर नहीं है, तो वचन हम क्या दें! क्वेकर जरूरत नहीं पड़ेगी। नाउ आई कैन रिटायर यू। हे मेरे मन, अब तुम्हें अदालत में कसम नहीं खाते; ओथ नहीं लेते। अदालत में क्वेकर मैं छुट्टी दे सकता हूं, क्योंकि अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है।
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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