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________________ * जगत एक परिवार है के है, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं है; और कहीं कोई संबंध नहीं है। दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? मैं कुछ कहता हूं, आप कुछ ध्यान रहे, मनुष्य की चेतना इसे स्वीकार नहीं करती है। परम कहते हैं। इन दोनों में कोई संबंध नहीं है! नास्तिक भी अपने जीवन में व्यवस्था को खोजता है। और परम __मैंने उनसे कहा, आपका मन भी संबंध की तलाश करता है? नास्तिक भी व्यवस्था की मांग करता है। | आप भी एक व्यवस्था की खोज करते हैं? आपको व्यवस्था का मैं एक नास्तिक को जानता हूं। मेरे पड़ोसी थे। विश्वविद्यालय खयाल छोड़ देना चाहिए। जब कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो आप में प्रोफेसर हैं। दर्शनशास्त्र के ही प्रोफेसर हैं। अक्सर मेरे पास आते | | मरने की खबर दें, मैं विवाह की चर्चा करूं, इससे अड़चन क्या थे। कहते थे, जगत में कोई व्यवस्था नहीं है। कहते थे, जगत सिर्फ | | है? लेकिन आपकी भी अपेक्षा है कि आपने मरने की खबर दी, तो परमाणुओं का जोड़ है। इसके भीतर कोई अंतःस्यूत, कोई धागा नहीं | मैं मरने की खबर के संबंध में ही बात करूं। इतनी व्यवस्था की है। जैसे कि माला में मनके डले होते हैं और भीतर एक अनस्यूत | मांग आप भी करते हैं! धागा उनको जोड़े होता है, ऐसा कोई धागा इस जगत में नहीं है; ___ हमारी चेतना व्यवस्था की मांग किए ही चली जाती है। अगर क्योंकि उसी धागे का नाम ईश्वर है। मनके ही मनके हैं, कहीं कोई | | कल रास्ते पर वे मुझे मिले थे और मैंने नमस्कार किया था और जोड़ नहीं है। और सब चीजें सांयोगिक हैं। आज नहीं किया, तो उनका मन दुखी होता है। मैंने उनसे पूछा, दुखी वे कहते थे कि जैसे हम एक टाइपराइटर पर एक बंदर को बिठा | होने की क्या जरूरत है ? कल यह संयोग था कि नमस्कार हुई। दें और वह ठोंकता रहे टाइपराइटर को, अनंतकाल तक ठोंकता रहे, | आज यह संयोग है कि नमस्कार नहीं होती। दोनों के बीच कोई तो गीता भी निर्मित हो सकती है। क्योंकि एक संयोग ही है; गीता | | संबंध कहां है? तब उनका बहरापन टूटना शुरू हुआ। और उन्हें भी शब्दों का एक संयोग है। अगर एक बंदर अनंतकाल तक-हम | | खयाल आना शुरू हुआ कि मांग तो मेरी भी व्यवस्था की ही है। सिर्फ कल्पना कर लें-एक बंदर अनंतकाल तक टाइपराइटर को चेतना व्यवस्था को मांगे ही चली जाती है। व्यवस्था चेतना की बैठकर कता रहे बिना कछ जाने. तो भी अनंत-अनंत संयोगों में गहरी प्यास है। ईश्वर उसका अंतिम उत्तर है। ईश्वर का अर्थ है. हम एक संयोग गीता भी होगी। क्योंकि आखिर गीता है क्या? शब्दों | | जगत को एक व्यवस्था मानते हैं। यहां कुछ भी अकारण नहीं है। का एक संयोग है। एक दफे में गीता निर्मित नहीं होगी, हजार दफे | इसलिए कृष्ण कहते हैं कि कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति में नहीं होगी, करोड़ दफे में नहीं होगी। हम सोचें अनंतकाल तक | को ही प्राप्त हो जाते हैं, मेरी प्रकृति में लय हो जाते हैं। और कल्प वह बंदर और टाइपराइटर दोनों लगे हुए हैं, तो अनंत-अनंत | | के प्रारंभ में उन्हें मैं पुनः निर्मित करता हूं। संयोगों में एक संयोग गीता भी होगी। इसे हम दूसरे दरवाजे से भी चलें। यह गाणितिक बात है। यह प्रोबेबिलिटी है। इसमें कोई शक नहीं । ऐसा अगर हो, मनुष्यता नष्ट हो जाए। कल कोई युद्ध है। यह हो सकता है। लेकिन फिर भी गीता को पढ़कर ऐसा मालूम हो-और अगर राजनीतिज्ञों की कृपा रही, तो होगा ही-मनुष्यता नहीं पड़ता कि यह एक संयोग है। फिर भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता | कल नष्ट हो जाए, आदमी समाप्त हो जाए, और फिर किसी कि किसी आदमी ने अचानक इन शब्दों को जोड़ दिया है। इन शब्दों | अनजाने ग्रह से मनुष्यता के इस मरघट पर कोई यात्री उतरें। अगर के भीतर अनस्यूत धागा मालूम पड़ता है। लेकिन वे मानने को राजी | उन्हें माइकलएंजलो के हाथ की बनी हुई कोई तस्वीर मिल जाए, तो नहीं थे। मैंने उन्हें न मालूम कितने-कितने रूपों से समझाया होगा, | वे क्या करें? लेकिन वे मानने को राजी ही नहीं थे। दो ही उपाय हैं। या तो वे सोचें कि किसी ने इसे बनाया होगा। जो मानने को राजी नहीं ही है, वह बहरा हो जाता है, वह सुनना | क्योंकि इतने अनुपात में, इतने सुसंयोजन में, इतनी लयबद्ध, रंगों बंद कर देता है। तब फिर मेरे पास एक ही उपाय था, और वह उपाय | | के साथ इतनी व्यवस्था, रूप का अवतरण, रंगों में निराकार की मैंने उनसे किया। मैं उनसे असंगत बातें करने लगा। वे पूछते | | पकड़-यह आकस्मिक नहीं हो सकती, को-इंसिडेंटल नहीं हो आकाश की, मैं जमीन का जवाब देता। वे ईश्वर की चर्चा उठाते, | सकती। ऐसा नहीं है कि रंग पड़ गए होंगे केनवस पर और यह चित्र मैं मशीन की बात करता। वे किसी के मरने की खबर देते, और मैं | बन गया होगा। किसी के विवाह की चर्चा छेड़ता। वे मुझसे कहने लगे, आपका एक तो रास्ता यह है कि वे इस चित्र की व्यवस्था को देखकर 2011
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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