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________________ * गीता दर्शन भाग-4* अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । का तो प्रमाण है, वह प्रत्यक्ष है और इंद्रियां उसका साक्षात्कार करती अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।४।। हैं। परमात्मा का कोई भी प्रमाण नहीं है। इसलिए पदार्थवादी सदा अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । से कहता रहा है कि पदार्थ ही है, परमात्मा नहीं है। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। ५।। | लेकिन कृष्ण जो परिभाषा करते हैं, वह पूर्वीय मनीषा की यं यं वापि स्मरम्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । | गहनतम खोजों में से एक है। वह यह है कि हम परमात्मा उसे कहते तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।६।। | हैं, जो सदा है एकरस, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं है। और पदार्थ उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और | हम उसे कहते हैं, जो एक क्षण को भी वैसा नहीं है जैसा क्षणभर हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ पहले था। परिवर्तन ही जिसका स्वभाव है, उसे हम पदार्थ कहते अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं। | हैं; और नित्य होना ही जिसकी स्थिति है, उसे हम ब्रह्म कहते हैं। और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ | चारों ओर जो हमें दिखाई पड़ता है, वह परिवर्तन ही है, क्योंकि शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता | परिवर्तन ही हमें दिखाई पड़ सकता है। इसे थोडा समझना होगा। है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। जो चीज बदलती है वह हमें दिखाई पड़ती है, यह आपने खयाल कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में शायद न किया हो। कभी आपने देखा हो, एक कुत्ता आपके घर के जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को सामने बैठा हुआ है। ठीक उसके सामने एक पत्थर पड़ा हुआ है, त्यागता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है। लेकिन उस कुत्ते को कोई फिक्र नहीं है। एक पतले धागे में उस परंतु सदा उस ही भाव को चिंतन करता हुआ, क्योंकि सदा पत्थर को बांधकर आप बैठे रहें; कुत्ता आराम से बैठा है। उस जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः उसी पत्थर का उसे कोई भी पता नहीं है। आप धागे से पत्थर को थोड़ा का स्मरण होता है। खींचें। और कुत्ते को फौरन एहसास होगा कि पत्थर है। भौंकेगा; | तैयार हो जाएगा। क्या हुआ? जो चीज बिलकुल थिर थी, उसने आकर्षित नहीं किया। वह . न सका न प्रारंभ है और न जिसका अंत, उसे कृष्ण ने थी या न थी, बराबर था। लेकिन जैसे ही गति आई, कि आकर्षण UI ब्रह्म कहा है। जो न कभी जन्मता है और न कभी मरता शुरू हुआ। है, वह ब्रह्म है। लेकिन जो भी हमारे चारों ओर मौजूद __ हम भी उन चीजों को भूल जाते हैं, जो बिलकुल थिर हैं। और दिखाई पड़ता है, वह जन्मता भी है और मरता भी है। उत्पत्ति भी | उन्हीं चीजों को याद रख पाते हैं, जिनमें गति है और परिवर्तन है। होती है उसकी और विनाश भी। कृष्ण कहते हैं, यही पदार्थ है, यही परिवर्तन दिखाई पड़ता है, क्योंकि इंद्रियां, जो बदलता है, उसकी अधिभूत है। बदलाहट के कारण बेचैन हो जाती हैं। इसे थोड़ा समझें, तो यह पदार्थ की और परमात्मा की यह परिभाषा समझ लेने जैसी है। भीतर प्रवेश करने में सहयोगी होगा। पदार्थ हम उसे कहते रहे हैं सदा से, जो वास्तविक मालूम पड़ता। जो चीज बदलती है, वह मन को बेचैन करती है, क्योंकि मन है, रियल मालूम पड़ता है, जिसे हम ठोंक-बजाकर देख और | को रि-एडजस्टमेंट करना होता है। फिर से अपने को बदलती हुई पहचान सकते हैं। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है-सुना | | स्थिति के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। जो चीज नहीं बदलती, जा सकता है, देखा जा सकता है, छुआ जा सकता है। जो हम उसे भूल जा सकते हैं, क्योंकि उसके साथ कोई नई स्थिति पैदा वास्तविक है, यथार्थ है, उसे हम पदार्थ कहते रहे हैं। | नहीं होगी, जिसके लिए हमें उसकी याद रखनी पड़े। जब साधारण और इसीलिए पदार्थवादी दर्शन है कि परमात्मा नहीं है, क्योंकि | | स्थिर चीजों के साथ ऐसा हो जाता है, तो जो शाश्वत है, नित्य है, वह पदार्थ की तरह यथार्थ नहीं है। न हम उसे देख सकते, न छू जो सदा से ही रहा है-जब हम नहीं थे, तब भी था; और जब हम सकते। जो न छुआ जाता, न देखा जाता, न इंद्रियों की पकड़ में नहीं होंगे, तब भी होगा; हम जागते हैं, तब भी वह वैसा है; हम आता, वह नहीं है। क्योंकि उसके होने का प्रमाण क्या है? पदार्थ | | सोते हैं, तब भी वह वैसा है—उसको अगर हम बिलकुल ही भूल 18
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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