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मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु स्मरण *
जाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मछली को सागर के पानी का पता नहीं चलता। चल भी नहीं सकता, जब तक मछली को पानी के बाहर न निकाल दिया जाए। क्योंकि जब मछली नहीं जन्मी थी, तब भी सागर था । वह उसी में जन्मी, उसी में बड़ी हुई, उसी में जीयी। उसे पता भी नहीं हो सकता कि सागर भी है। सागर का होना इतना थिर है उसके लिए कि अपने होने में और सागर के होने में कोई फर्क और फासला भी नहीं है कि उसे उसका पता चले।
हां, एक बार मछली को सागर से बाहर निकाल लें, तो जो पहली चीज मछली को पता चलेगी, वह सागर है। फिर दूसरी चीजें तो पीछे पता चलेंगी। पहला पता चलेगा सागर का ।
मछली को सागर से निकाला जा सकता है, लेकिन मनुष्य को परमात्मा के बाहर नहीं निकाला जा सकता है। इसलिए हमें उसका पता भी नहीं चल सकता है। हम उसे स्वीकार — स्वीकार करने का भी सवाल नहीं है, हम उसकी प्रत्यभिज्ञा को, उसके रिकग्नीशन को भी उपलब्ध नहीं होते हैं।
`पदार्थ का पता चलता है; वह प्रतिपल भागा जा रहा है, बदलता जा रहा है। बदलते हुए पदार्थ के साथ हमें बदलना पड़ता है। हमें बदलना पड़ता है, इसलिए हमें उसका स्मरण रखना पड़ता है। इसलिए इंद्रियां केवल बदलते हुए पदार्थ को ही पकड़ती हैं। इंद्रियों का काम ही यही है। बदलते हुए संसार के हमें योग्य बनाए रखना, इंद्रियों का काम है। यही उनकी कुशलता है।
हम एक आदमी को बहरा कहते हैं, क्यों? क्योंकि बाहर जो ध्वनियों में अंतर हो रहा है, वह उसकी पकड़ में नहीं आता । लेकिन अगर पूर्ण सन्नाटा हो, तो बहरे और कान वाले आदमी में कोई फर्क होगा? अगर पूर्ण सन्नाटा हो और आप अचानक बहरे हो जाएं, तो क्या आपको पता चलेगा कि आप बहरे हो गए हैं? आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि आपको अपने कान का ही पता तब चलेगा, जब बाहर दुनिया बदलती हो और आप उन्हें न पकड़ पाते हों।
अगर कोरे आकाश को मेरी आंखें देखती हों, जहां कोई भी परिवर्तन न हो, तो मैं कब अंधा हो गया, मुझे पता नहीं चल सकेगा। बदलती हुई चीजों की वजह से पता चलता है। आंख का काम है कि वह बदलती हुई चीजों की खबर देती रहे। ये सारे उपकरण इंद्रियों के बदलाहट की खबर देने के लिए हैं।
और जिंदगी पूरे समय बदलती है। पदार्थ पूरे समय बदलता है।
और आपको प्रतिपल होश रखना पड़ेगा, बदलाहट तेजी से हो रही है। लेकिन परमात्मा तो कभी बदलता नहीं। कृष्ण कहते हैं, वह | नित्य है, निराकार है, शून्य जैसा है, शून्य का सागर है। उसमें तो कोई बदलाहट होती नहीं है। इसलिए हमें उसका कोई भी पता नहीं चलता है।
तो कृष्ण ने पहले तो ब्रह्म की परिभाषा में कहा कि वह जो विनाश को कभी उपलब्ध नहीं होता।
विनाश को वही उपलब्ध नहीं हो सकता, जिसका होना न होने जैसा हो। इसे थोड़ा खयाल ले लेंगे। जिसका होना न होने जैसा हो, वही केवल विनाश को उपलब्ध नहीं हो सकता। जिसका होना जितना ठोस होगा, उतनी जल्दी विनाश को उपलब्ध हो जाएगा।
कल कोई मुझसे पूछता था कि क्या आप मुझे प्रेम करते हैं? और यदि मुझे प्रेम करते हैं, तो क्या आपका प्रेम सदा बना रहेगा मेरे प्रति? तो मैंने उस व्यक्ति को कहा कि अगर मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, | तो वह सदा बना रहना बहुत मुश्किल होगा। और जितना ज्यादा करूंगा, उतनी जल्दी खो जाएगा। अगर तुम चाहते हो कि मेरा प्रेम | बना ही रहे सदा तुम्हारे प्रति, तो तुम्हें मेरे ऐसे प्रेम को स्वीकार | करना पड़ेगा, जिसका पता भी नहीं चलता है।
जिस चीज का भी पता चलेगा, वह ठोस हो गई, पदार्थ हो गई। प्रेम भी पदार्थ हो जाता है, जब उसका पता चलता है । फिर वह विनाश के जगत में प्रवेश कर जाता है। जिस प्रेम का पता ही नहीं चलता, वह कभी विनष्ट नहीं होता। क्योंकि उसके विनाश का कोई उपाय नहीं है। आकार चाहिए, तो कोई चीज विनष्ट की जा सकती है । निराकार को विनष्ट करने का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा का होना, न होने जैसा है। एक्झिस्टेंस, एज इफ नान एक्झिस्टेंट, जैसे न हो । छूने जाते हैं, तो छूने में नहीं आता। देखने जाते हैं, तो दिखाई नहीं पड़ता। खोजते हैं, खोज में नहीं आता । मुट्ठी बांधते हैं, कहीं कोई पकड़ नहीं बैठती। और है! और वही है। और बाकी सब होना, न होने में डूबता चला जाता है।
लेकिन जिसे सदा होना है, उसे ऐसा होना पड़ेगा कि वह पकड़ में न आए। क्योंकि जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ हो जाता है । जिस चीज को भी हम कह सकते हैं, है; हमारे कहते ही वह | विनष्ट होनी शुरू हो जाती है। इसलिए कुछ अदभुत आस्तिक जमीन पर हुए हैं, उनकी मैं आपसे बात कहूं, जैसे बुद्ध ।
बुद्ध से कोई पूछे कि ईश्वर है, तो वे चुप रह जाते हैं। बुद्ध के इस चुप रह जाने के कारण एक भ्रांति पैदा हुई। लोगों ने समझा,
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