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________________ * स्वभाव अध्यात्म है है अधिभूत क्या है? अधिदैव क्या है? यहां अधियज्ञ कौन है? इस | | छोटे-से दो शब्दों से शुरू होता है ब्रह्म-सूत्र, अथातो ब्रह्म शरीर में वह कैसे है? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय | जिज्ञासा-यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है। पर यह आखिरी में आप किस प्रकार जानने में आ जाते हो? | सवाल है; अब इसके आगे सवाल नहीं हो सकते। हेंस दि इंक्वायरी ऐसा भी नहीं लगता कि किसी भी एक प्रश्न में उसकी बहुत | आफ दि ब्रह्म; यहां से शुरू होती है ब्रह्म की जिज्ञासा। बस, अब उत्सुकता होगी! वह इतनी त्वरा से, इतनी तीव्रता से सवाल पूछ रहा | | कोई सवाल नहीं उठ सकते; आखिरी सवाल पूछ लिया गया। है कि लगता है, सवाल पूछने के लिए ही सवाल पूछे जा रहे हैं। __ अर्जुन भी पूछता है, ब्रह्म क्या है? लेकिन क्षणभर रुकता नहीं, अन्यथा ब्रह्म के बाद कोई सवाल नहीं है। और ब्रह्म के बाद जो | जरा-सा अंतराल नहीं है। पूछता है, अध्यात्म क्या है ? अगर कृष्ण सवाल पूछता है, वह कहता है, ब्रह्म में उसकी बहुत उत्सुकता और | | ने लौटकर पूछा होता कि अर्जुन, अपने सवाल को फिर दोहरा, तो जिज्ञासा नहीं है। अन्यथा एक सवाल काफी है कि ब्रह्म क्या है ? जैसे मुझे उसका कागज हाथ में रखना पड़ा, ऐसा उसे भी रखना दूसरा सवाल उठाने की अब कोई और जरूरत नहीं है। इस एक का | | पड़ता। बहुत संभावना तो यही है कि वह दुबारा अपना सवाल वैसा ही जवाब सबका जवाब बन जाएगा। एक को ही जानने से तो सब | का वैसा न दोहरा पाता। और यह भी संभावना बहुत है कि उसमें जान लिया जाता है। लेकिन जो सबको जानने की विक्षिप्तता से भरे | ब्रह्म और अध्यात्म चूक सकते थे, भूल जा सकते थे। होते हैं, वे एक को भी जानने से वंचित रह जाते हैं। ऐसा मेरा रोज का अनुभव है। आता है कोई, कहता है, ईश्वर ब्रह्म के बाद भी अर्जुन के लिए सवाल हैं। इससे एक बात साफ | | के संबंध में कुछ कहें। अगर मैं दो क्षण उसकी बात को है कि कोई भी जवाब मिल जाए, अर्जुन के सवाल हल होने वाले टाल-मटोल कर जाता हूं, पूछता हूं, कब आए? कैसे हैं? वह फिर दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो ब्रह्म के बाद भी सवाल पूछ सकता है, घंटेभर बैठकर बात करता है, दुबारा नहीं पूछता उस ईश्वर के वह हर सवाल के बाद, हर जवाब के बाद, नए सवाल खड़े करता | संबंध में, जिसे पूछते हुए वह आया था! चला जाएगा। ऐसे सवाल भी हम कहां से पूछते होंगे? ये हमारे हृदय के किसी असल में हमारा मन जब भी एक जवाब पाता है. तो उस जवाब | गहरे तल से आते हैं या हमारी बुद्धि की पर्त पर धूल की तरह जमे का एक ही उपयोग करना जानता है, उससे दस सवाल बनाना हुए होते हैं? ये हमारे प्राणों की किसी गहरी खाई से जन्मते हैं या जानता है। बस हमारी बुद्धि की खुजलाहट हैं? अगर यह बुद्धि की खुजलाहट पूरे मनुष्य जाति के मन का इतिहास नए-नए प्रश्नों का इतिहास | है, तो खाज को खुजला लेने से जैसा रस आता है, वैसा रस तो है। एक भी उत्तर आदमी खोज नहीं पाता। हालांकि हर दिए गए | आएगा, लेकिन बीमारी घटेगी नहीं, बढ़ेगी। उत्तर के साथ दस नए सवाल खड़े हो जाते हैं। __ अर्जुन की बीमारी घटती हुई मालूम नहीं पड़ती। वह पूछता ही अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी के उत्तर जितने आज हैं, उतने चला जाता है। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि जो मैं पूछ रहा हूं, ही सदा थे। कृष्ण के समय में भी उत्तर वही था; बुद्ध के समय में वह बहुत बार पहले भी पूछ चुका हूं। वह यह भी फिक्र नहीं करता भी उत्तर वही था; आज भी उत्तर वही है। लेकिन सवाल आज कि मैं केवल नए शब्दों में पुरानी ही जिज्ञासाओं को पुनः-पुनः खड़ा ज्यादा हैं। अगर कोई प्रगति हुई है, तो वह एक कि हमने और ज्यादा | | कर रहा हूं। वह इसकी भी चिंता नहीं करता कि कृष्ण उत्तर देते जा सवाल पैदा कर लिए हैं; जवाब नहीं। और ज्यादा सवालों की भीड़ | रहे हैं, लेकिन मैं उत्तर नहीं सुन रहा हूं। में जो हाथ में जवाब थे, वे भी छूट गए हैं और खोते चले जाते हैं। शायद वह इस खयाल में है कि कोई ऐसा सवाल पूछ ले कि यह बात उलटी मालम पडेगी कि जहां बहत सवाल होते हैं. वहां कृष्ण अटक जाएं! शायद वह इस प्रतीक्षा में है कि कोई तो वह जवाब कम हो जाते हैं; और जहां सवाल बिलकुल नहीं होते, वहीं | सवाल होगा, जहां कृष्ण भी कह देंगे कि कुछ सूझता नहीं अर्जुन, जवाब, उत्तर, दि आंसर, एक ही उत्तर सारी ग्रंथियों को, सारी | | कुछ समझ नहीं पड़ता। इस प्रतीक्षा में उसका गहरा मन है। उसका उलझनों को तोड़ जाता है। अनकांशस माइंड, उसका अचेतन मन इस प्रतीक्षा में है कि कहीं बादरायण का ब्रह्म-सूत्र एक छोटे-से सूत्र से शुरू होता है। और वह जगह आ जाए, या तो कृष्ण कह दें कि मुझे नहीं मालूम; या एक छोटे-से सवाल का ही जवाब पूरे बादरायण के ब्रह्म-सूत्र में है। | कृष्ण ऊब जाएं, थक जाएं और कहें कि जो तुझे करना हो कर;
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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