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गीता दर्शन भाग-4*
श्रीमद्भगवद्गीता
कृष्ण कहते हैं जरूर; अर्जुन तक पहुंच नहीं पाता है। दुविधा है; अथ अष्टमोऽध्यायः
| लेकिन ऐसी ही स्थिति है। जब तक प्रश्न होते हैं मन में, तब तक
| उत्तर समझ में नहीं आता। और जब प्रश्न गिर जाते हैं, तो उत्तर अर्जुन उवाच
समझ में आता है। और प्रश्न से भरा हुआ मन हो, तो कृष्ण भी किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म कि कर्म पुरुषोत्तम । | सामने खड़े हों, साक्षात उत्तर ही सामने खड़ा हो, तो भी समझ के अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।। १।। | बाहर है। और मन से प्रश्न गिर जाएं, तो पत्थर भी पड़ा हो सामने,
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । तो भी उत्तर बन जाता है। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।२।। निष्प्रश्न मन में उत्तर का आगमन होता है। प्रश्न भरे चित्त में उत्तर श्रीभगवानुवाच
| को आने की जगह भी नहीं होती। इतनी भीड़ होती है अपनी ही कि अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । उत्तर के लिए प्रवेश का मार्ग भी नहीं मिलता है। भूतभावोद्भवको विसर्गः कर्मसंजितः ।।३।। __ अर्जुन पूछे चला जाता है। ऐसा भी नहीं है कि समझने की अर्जुन बोला, हे पुरुषोत्तम, जिसका आपने वर्णन किया, वह | कोशिश न करता हो; पूरी कोशिश करता है। लेकिन बहुत बार ब्रह्म क्या है, और अध्यात्म क्या है तथा कर्म क्या है, और | समझने की कोशिश ही समझने में बाधा बन जाती है। जब भी मन अधिभूत नाम से क्या कहा गया है तथा अधिदेव नाम से कोशिश करता है, तो तनावग्रस्त हो जाता है, खिंच जाता है। उस ___ क्या कहा जाता है?
खिंची हुई, तनी हुई हालत में कुछ भी समझ नहीं आता है। और हे मधुसूदन, यहां अधियज्ञ कौन है, और वह इस शरीर समझने की कोशिश भी जहां नहीं है, सिर्फ पी लेने का भाव है; में कैसे है, और युक्त वित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में | पूछने का भी जहां खयाल नहीं है, जो मिल जाए, उसे प्राणों में संजो
आप किस प्रकार जानने में आते हो? | लेने की आकांक्षा है; खींच लेने की भी आतुरता नहीं है कि यही मैं श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, परम अक्षर अर्थात जिसका | खींच लूं, जान लूं, पालूं, द्वार खोलकर प्रतीक्षा करने की जहां हिम्मत कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानंदघन परमात्मा तो ब्रह्म है | है, वहां उत्तर चुपचाप, बिना पदचाप किए भीतर चला आता है। .
और अपना स्वरूप अर्थात स्वभाव अध्यात्म नाम से कहा | और बड़े-बड़े प्रश्न पूछने से उत्तर मिल जाएगा, ऐसा भी नहीं जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो विसर्ग | | है। मन बड़े-बड़े प्रश्न खड़े कर देता है। लेकिन जब तक मन प्रश्न अर्थात त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है। | खड़े करता रहता है, तब तक छोटा भी उत्तर नहीं मिलता. क्योंकि
मन ही बाधा है।
अर्जुन प्रश्नों की एक कतार खड़ी करता है। इसके पहले कृष्ण 27 र्जुन के प्रश्नों का कोई अंत नहीं है। किसी के भी प्रश्नों | | उत्तर देते रहे हैं। पिछले सात अध्यायों में उन्होंने बहुत उत्तर दिए हैं। l का कोई अंत नहीं है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे | | वह घूम-घूमकर नए-नए प्रश्नों के नाम से फिर पुरानी-पुरानी बातें
मनुष्य के मन में प्रश्न लगते हैं। और जैसे झरने नीचे खड़ी कर लेता है। वह फिर पूछता है। और एक बात भी नहीं की तरफ बहते हैं, ऐसा मनुष्य का मन प्रश्नों के गड्ढों को खोजता है। | पूछता, यह भी थोड़ी समझ लेने जैसी बात है।
कृष्ण जैसा व्यक्ति भी मौजूद हो, तो भी प्रश्न उठते ही चले जाते | वह पूछता है, हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है? हैं। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण को भी देख पाने | प्रश्न का अंत नहीं होता, यद्यपि समस्त प्रश्नों का अंत ब्रह्म के में समर्थ नहीं है। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण के | | प्रश्न के साथ हो जाता है। उसके बाद प्रश्न बचते नहीं। ब्रह्म के उत्तर को भी नहीं सुन पाता है।
| बाद भी कोई प्रश्न शेष रह जाएगा? ब्रह्म तो दि अल्टिमेट क्वेश्चन जिस मन में बहुत प्रश्न भरे हों, वह उत्तर को नहीं समझ पाता है। है, आखिरी सवाल है। इसके बाद पूछने को क्या बचता होगा? क्योंकि वस्तुतः जब उत्तर दिए जाते हैं, तब वह उत्तर को नहीं सुनता; लेकिन पूरी कतार है। अपने प्रश्नों को ही, अपने प्रश्नों को ही भीतर गुंजाता चला जाता है। अर्जुन पूछता है, ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है?