________________
* गीता दर्शन भाग-4
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। २३ । । अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।। २४ ।। यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।। २५ ।। और हे अर्जुन, यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं। किंतु उनका यह पूजना अविधिपूर्वक है, अर्थात अज्ञानपूर्वक है। क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं। परंतु वे मुझ अधियज्ञ-स्वरूप परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते हैं, इसी से गिरते हैं, अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।
कारण यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं, और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं। इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।
म
नुष्य की खोज चाहे हो कुछ भी, चाहे मांग हो कोई, चाह हो कोई, किसी भी दिशा में दौड़ता हो, कुछ पाना चाहता हो, लेकिन अंततः मनुष्य परमात्मा को ही पाना चाहता है। उसकी सब चाहों में परमात्मा की ही चाह छिपी होती है। उसकी सब वासनाओं में उस प्रभु की तरफ पहुंचने की ही आकांक्षा का बीज छिपा होता है। और जरूरी नहीं है कि यह उसे ज्ञात हो; इसका ज्ञान न भी हो । नहीं होता है। तो भी बीज परमात्मा की ही तलाश का है।
हम एक बीज को बोते हैं जमीन में, उस बीज को पता भी नहीं होगा कि वह किस लिए टूट रहा है और किस लिए अंकुरित हो रहा है। उसे यह भी पता नहीं होगा कि इस अंकुरण की प्रक्रिया का अंतिम रूप क्या होने को है। उसे यह भी पता नहीं है कि यह जो आकाश की तरफ उसकी दौड़ चल रही है, यह जो आकाश में शाखाओं को फैला देने का आयोजन चल रहा है, यह किस लिए है ? वह किसे पाना चाहता है? उसे उन फूलों का तो कोई भी स्मरण न होगा, कोई भी स्वप्न भी नहीं होगा, जो फूल उसकी शाखाओं पर खिलेंगे। और उन बीजों की उसे कोई खबर नहीं हो सकती है,
| जो उसके ऊपर लगने वाले हैं। उस जीवन का भी उसे कोई अंदाज नहीं हो सकता, जो कि वृक्ष का जीवन होगा।
ठीक, आदमी भी बीज की तरह परमात्मा की तरफ बढ़ता है, अनजाने । उसे पता भी नहीं कि वह क्या खोज रहा है! क्यों खोज रहा है ! उसकी सब खोजों में अंतर्निहित खोज क्या है ! इसे हम थोड़ा आदमी की इच्छाओं को समझें, तो समझना आसान हो जाएगा।
एक आदमी है, जो धन चाहता है; धन के पीछे दौड़ रहा है। उससे अगर हम कहें कि वह भी परमात्मा को खोज रहा है, तो वह भी मानने को राजी नहीं होगा, दूसरे तो राजी होंगे ही नहीं। एक | आदमी पद की तलाश कर रहा है, प्रतिष्ठा की, यश की। अगर हम कहें कि वह भी प्रभु को खोज रहा है, तो कौन तैयार होगा इस | असंगत बात को स्वीकार करने को ? एक आदमी प्रेम को खोज रहा है, और हम कहें परमात्मा को खोज रहा है, तो कोई तालमेल नहीं मालूम पड़ता। लेकिन अगर थोड़ा गहरे उतरें, तो सीढ़ियां दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी, शृंखला साफ होने लगेगी।
एक आदमी धन खोजता है, किस लिए? और धन से क्या उसका प्रयोजन है?
धन खोजता है तीन कारणों से। पहला, सुरक्षा के लिए, फार सिक्योरिटी । कल की कोई सुरक्षा नहीं है। अगर धन पास में है, तो | कल की सुरक्षा हो जाएगी। अगर धन पास में है, तो कल के लिए | निश्चित हो सकता है। अगर धन पास में है, तो कल की फिक्र छोड़ी जा सकती है।
इसका अर्थ हुआ कि धन खोज रहा है इसलिए कि एक ऐसा जीवन मिल जाए, जहां फिक्र न हो, चिंता न हो। एक ऐसा जीवन | मिल जाए, जहां सुरक्षा हो, असुरक्षा न हो; जहां भय न हो; जहां | मैं असहाय अनुभव न करूं अपने को। वह एक ऐसा जीवन खोज रहा है। लेकिन धन खोज रहा है इस जीवन के लिए। धन से यह जीवन नहीं मिलेगा, लेकिन आकांक्षा यही है।
एक आदमी जब धन खोज रहा है, तो वह भी ऐसा धन खोजता | है — दूसरी बात - जो छीना न जा सके। इसलिए तो इतना इंतजाम करता है तिजोड़ियों का, बैंकों का, सेफ्टी का सारा इंतजाम करता | है कि छीना न जा सके। आकांक्षा यह है कि धन हो तो ऐसा, जो कोई छीन न सके। हालांकि जो भी धन हम इंतजाम करते हैं, वह छीना जा सकता है। छीना जाता है। अब तक आदमी कोई उपाय | नहीं कर पाया कि ऐसा धन खोज ले, जो छीना न जा सके। सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं।
302