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* गीता दर्शन भाग-4*
कारण सीधा समझ में नहीं आता। कोई कारण सीधा समझ में नहीं आता। और कृष्ण अकारण कहेंगे, यह तो बिलकुल समझ में नहीं आता। या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह सम्राट परिवार का है, सम्राट होने की पूरी संभावना है उसकी पुनः, इसलिए कहेंगे, यह भी समझ में नहीं आता। क्योंकि कृष्ण के लिए सम्राट और सड़क के भिखारी में क्या फर्क होगा !
और देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्या देहें भी श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ होती हैं? क्या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह एक कुलीन वंश से आता है? क्या उसकी देह में मांस-मज्जा न होकर सोने और हीरे और जवाहरात जड़े हैं? और जड़े भी हों, तो भी हड्डी से उनका कोई ज्यादा मूल्य नहीं है। क्यों कहते होंगे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ?
गीता पर हजारों वक्तव्य दिए गए हैं, लेकिन मेरे खयाल में कोई वक्तव्य नहीं है, जो ठीक से कह पाता हो कि अर्जुन को कृष्ण ने बार-बार कहा, देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! यह क्यों कहा है? उन सबकी मान्यता यही रही है कि क्षत्रिय कुल का है, बड़े कुलीन वंश का है, राज-परिवार का है, योद्धा है, फिर कृष्ण का मित्र है, इसलिए कहते होंगे। पुण्यात्मा है, नहीं तो कैसे इतने बड़े कुल में पैदा होगा, इसलिए कहते होंगे।
नहीं; बिलकुल नहीं। एक ही क्षण में कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है, जिस दिन उसकी देह, वह जो जीवन का परम सत्य है, उसे सुनने के निकट होती है। वह जो जीवन का परम सत्य है, वह जो जीवन का गुह्य रहस्य है, जिस दिन किसी व्यक्ति की देह, किसी व्यक्ति का शरीर उस परम रहस्य को सुनने के, देखने के, स्पर्श करने के, जानने के निकट होता है, उसी क्षण...।
कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन को । और निश्चित ही इस अर्थ में वह देहधारियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि कृष्ण के इतने निकट होना, और कृष्ण की वाणी के इतने निकट होना, और कृष्ण के गुह्य संदेश के इतने निकट होना, जस्ट बाइ दि कार्नर, जहां कोई चाहे तो छलांग लगा और कृष्ण हो जाए। सूर्य के इतने निकट होना कि जहां से स्वयं भी प्रकाश बन जाना आसान हो। बस, इस एक घड़ी में ही कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है।
कभी कोई अर्जुन कृष्ण के करीब, कभी कोई आनंद बुद्ध के करीब, कभी कोई ल्यूक क्राइस्ट के करीब, कभी कोई च्वांगत्से लाओत्से के करीब देहधारियों में अचानक श्रेष्ठ हो जाता है। अपनी देह के कारण नहीं, उस दूसरे की मौजूदगी के कारण, जिसकी मौजूदगी पारस की तरह लोहे को सोने में बदल सकती है।
अर्जुन को यह याद दिलाने के लिए कि अर्जुन, यह क्षण मोमेनटस है, यह घड़ी अलौकिक है। ऐसी घड़ी बाद में पुनरुक्त होगी, नहीं कहा जा सकता है।
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इतिहास दोहरता है सिर्फ सड़ी-गली चीजों के लिए। चंगेज दुबारा आ जाता है, हिटलर बार-बार लौट आते हैं। हत्याएं और युद्ध फिर-फिर हो जाते हैं। लेकिन गीता दुबारा कही जानी और दुबारा सुनी जानी मुश्किल है। जो सड़ा-गला है, वह रोज घूम-फिरकर लौट जाता है। लेकिन जो श्रेष्ठ है, उसकी पुनरुक्ति शायद ही कभी होती है।
कृष्ण सिर्फ अर्जुन को बहुत परोक्ष रूप से याद दिलाते हैं कि अर्जुन यह क्षण बहुत कीमती है। इस समय तू सिर्फ अर्जुन नहीं है, देहधारियों में श्रेष्ठ हो गया है। इस समय तू उन वचनों को सुन रहा है, जो तेरे जीवन के लिए क्रांति बन सकते हैं। एक शब्द भी तेरे लिए छलांग हो सकता है। और तत्काल उसके पीछे ही कहते हैं इसीलिए कि हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूं।
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और यह जो शरीर है, यह जो देह है, इस देह में तीन बातें हो गईं। एक, इसमें पदार्थ है, जो परिवर्तित होता है, विनाश को उपलब्ध होता है। जिसे हम देह समझते हैं, वह देह वही है, जिसे | कृष्ण पदार्थ कह रहे हैं, अधिभूत कह रहे हैं। इसे थोड़ा समझें।
जिसे हम कहते हैं देह, उसे कृष्ण अधिभूत कहते हैं। यह एक पर्त है हमारी देह की, दि फर्स्ट सर्किल, पहला वृत्त। इसके भीतर चलें तो चैतन्य है, चेतना है । वह भी हमारी बड़ी धीमी-धीमी है, मूर्च्छित- मूर्च्छित है। उसे कृष्ण अधिदैव कहते हैं। और अगर इसके भी भीतर चलें, तो सेंटर है, केंद्र है। वही केंद्र कृष्ण कहते हैं, मैं हूं, अधियज्ञ हूं।
बाहर है मूर्च्छित देह, पदार्थ । उसके भीतर है अर्ध-मूर्च्छित अर्ध- जाग्रत चेतना; धुआं-धुआं, अंधेरा-अंधेरा, कुछ साफ नहीं, धुंध - धुंध। उसके भीतर है जलती हुई प्रज्वलित अग्नि, पूर्ण चेतना । | इसलिए कृष्ण ने उसे कहा, अधियज्ञ । वही हूं मैं यज्ञ, पूर्ण जलती हुई ज्योति, अखंड, जहां धुआं भी नहीं, फ्लेम विदाउट स्मोक ।
अगर धुआं है ज्योति के आस-पास, तो वह नंबर दो की बात | है - अधिदैव । अगर धुआं ही धुआं है, ज्योति ही नहीं है, तो वह पहली बात है - अधिभूत । और अगर धुआं बिलकुल नहीं है, सिर्फ फ्लेम है, सिर्फ ज्योति है, जिससे धुआं पैदा ही नहीं होता...। और जिस ज्योति में धुआं पैदा होता है, वह यज्ञ की ज्योति नहीं । जिस ज्योति में धुआं पैदा नहीं होता, वही यज्ञ की ज्योति है।